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अर्थात् धर्म केलिए बाहरी किसी भी चिन्ह की जरूरत नहीं|

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न लिंग धर्म कारणम्।
अर्थात् धर्म केलिए बाहरी किसी भी चिन्ह की जरूरत नहीं|
होती, वह सभी दिखावा है, आडम्बर है, बनावटी पन है। यहाँ बिना बनावटी पन के धारण करना ही धर्म है। आगे कहा –
आचारः परमो धर्मः श्रूतयुक्तः स्मार्त एव च।
अर्थात् धर्मलक्षणों के अंतर्गत ऋषियों द्वारा वर्णित उत्तम व श्रेष्ठ गुण कर्म को अपने जीवन में आचरण करना ही धर्म है। ऋषि दयानन्द की मान्यता है कि
जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सुपरीक्षित, पक्षपात रहित, न्यायाचरण, सत्य भाषण आदि से परिपूर्ण और वेदोक्त यानि वेद वर्णित अर्थात वेदों के विरुद्ध होने से सब मनुष्य के लिए एक और मानने योग्य जो परमात्मा कि आज्ञा है, वही धर्म है और उसी का अनुसरण, अनुकरण व सेवन करना ही धार्मिकता है |
 
अतः धर्म एक ही है जो सत्य सनातन शाश्वत है और वह मानव मात्र का धर्म है या वैदिक धर्म के नाम से जाना जाता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को मत,पन्थ, साम्प्रदायिकता के अन्धानुकरण को छोड़ स्वस्थ, निष्पक्ष व स्वतन्त्र मस्तिष्क से विचारपूर्वक चिन्तन व मनन करते हुए उपरोक्त वर्णित धर्म का धारण करके मनुष्य बनने का सार्थक प्रयास अवश्य करना चाहिए। क्योंकि यही मानव धर्म, वैदिक धर्म ही हमारा प्राचीनतम सत्य, सनातन शाश्वत और अमर धर्म है । इसी के धारण करने से हम मनुष्य बनते हैं और यही मनुष्यता हमारे अस्तित्व, सम्मान व गर्व का प्रतीक और द्योतक है ।
यही कारण है कि वेद में परमात्मा ने उपदेश दिया है ‘मनुर्भव’ मानव बनो। यहाँ पर ना तो हिन्दू बनने का, ना मुस्लमान बनने का,ना सिख, ईसाई,जैनी और ना ही बौद्धी बनने का उपदेश है,अपितु परमात्मा ने मानव बनने का उपदेश दिया है, जिससे मानव मात्र का सर्वांगीण विकास हो। नेट न रहने के कारण विचार देने में देर हुई | महेंद्र पाल आर्य 8/8/22

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