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आर्य कह लाने वालों सुनें ऋषि दयानंद के विचार

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आर्य समाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द ने अपने कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के अन्तमें स्वमंताव्यामंताव्य्प्रकाश: में क्या लिखा है आर्य कहलाने वालो कभी पढ़ कर देखा भी ? ऋषि लिखते हैं सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात साम्राज्य सार्व जनिक धर्म जिसको सदा से सब मानते आये,मानते हैं और मानेगे भी,इसीलिए उसको सनातन नित्य धर्म कहते हैं, की जिसका विरोधी कोई भी न हो सके | यदि अविद्या युक्त जान अथवा किसी मत वालेके भ्रमाये हुए जन जिसको अन्यता जाने व माने उसका स्वीकार कोई भी बुद्धिमान नहीं करते, किन्तु जिसको आप्त अर्थात सत्यमानी सत्यवादी सत्यकारी परोपकारक पक्षपात रहित विद्वान मानते है वही सबको मंतव्य और जिसको नहीं मानते वह अमंताव्य होने से प्रमाण के योग्य नहीं होता | अब जो वेदादि सत्य शास्त्र और ब्रम्हा से ले कर जैमिनिमुनि पय्यन्तों के माने हुए ईश्वारादी पदार्थ है, जिनको की मै भी मानता हूँ,सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ |
मै अपना मंतव्य उसीको जनता हूँ की जो तीन कालमे सबको एक सा मानने योग्य है | मेरा कोई नवीं कल्पना व मतमतान्तर चलानेका लेश मात्र भी अभिप्राय नहीं है, किन्तु जो सत्य है, उसको मानना,मनवाना, और जो असत्य है, उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझको अभीष्ट है | यदि मै पक्षपात करता तो आर्यवर्त में प्रचरित मतों मे से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो जो आर्यावर्त व अन्य देशों में अधर्म युक्त चाल चलन है उसका स्वीकार और जो धर्म युक्त बातें है उनका त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ, क्यों की ऐसा करना मनुष्य धर्म से बही: है |
मनुष्य उसी को कहना की जो मनन शील होकर स्वात्मवत अन्यो के सुख दुःख और हानी लाभ को समझे | अन्यायकारी वलवान से भी न डरें और धर्मात्मा निर्वल से भी डरता रहे | इतनाही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ से धर्मात्माओं, चाहे वह महा अनाथ निर्वल और गुणरहित क्यों न हो, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ,महा वलवान और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश,अब्नती और अप्रियाचरण सदा किया करें अर्थात जहाँ तक हो सका वहातक अन्याय कारियों के वल की हानी और न्याय कारियों के बल्कि उन्नति सर्वथा किया करें | इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावे,परन्तु इस मनुष्य रूप धर्म से पृथक कभी न होवे |
आर्य कहलाने वालो बात दयानन्द की मानी जाये या तुम्हारी? दयानन्द ने अपनी प्राण भी गवाना पड़े लिखा फिर भी असत्य को असत्य ही कहना, अब बताव जिस कुरान का तुम विमोचन करने का समर्थन कर रहे हो द्यानन्द ने उसपर क्या लिखा, उसे मानव मानने से भी मना किया तो क्या तुम सब मानवों में अपनी गिनती करोगे, या करवा पावगे ? तो फिर सन्यासी मानवों का होगा या दानवों का ? मेरा सिर्फ दो टूक कहना है दुनिया कोई कुछ भी करे जब आप अपने को विशुद्ध वैदिक धर्मी मानते हैं तो आचरण उसपर आप करेंगे या दूसरा कोई ? अगर आप उसपर आचरण नहीं कर पा रहे तो आप यह मत कहिये की मै वैदिक धर्मी हूँ दयानन्द के अनुयायी हूँ, यह किसलिए कहते हैं ? अगर आप दयानन्द के अनुयायी हैं तो दयानन्द के उपदेशों को कौन मानेगा ? मेरा मात्र यही कहना है मन वचन और कर्म आपका एक नहीं है तो आर्य समाज में आप का क्या काम | ऋषि ने लिखा है अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सम्राट भो हो तथापि उसका समर्थन नहीं करना चाहिए | अब बताव की किसका समर्थन किया जा रहा है ?

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