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उपदेशक को परमात्मा की ओर से अलौकिक शक्ति कब मिलती है ?

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[नोट : महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने जोधपुर से दि० ५ अगस्त १८८३ को उदयपुर नरेश महाराणा सज्जनसिंह के मन्त्री श्री किसन (कृष्ण) सिंह जी बारहठ को एक महत्त्वपूर्ण पत्र लिखा था । वैसे तो इस पूरे पत्र में कुल तीन बिन्दु हैं परन्तु यहां केवल प्रथम दो बिन्दुओं को प्रस्तुत किया गया है । इस पत्र में महर्षि ने धर्म रक्षा के लिए ईसाई आदि के साथ शास्त्रार्थ या वार्तालाप करने के लिए उपदेशक में कौन-सी योग्यता अपेक्षित है, किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है इत्यादि महत्त्वपूर्ण बातों का संकेत किया है । आशा है कि आर्यों को यह पत्रांश पठनीय लगेगा । – प्रस्तुतकर्त्ता : भावेश मेरजा]

ओम्

श्रीयुत बारहठ किसनजी,

आनन्दित रहो ।

पत्र आपका आया। समाचार विदित हुआ । यह पत्र सर्वाधीशों [उदयपुराधीशों] को दृष्टिगोचर करा देना ।

१. मेरी भी यह मनसा नहीं है, न थी कि पादरियों के सामने शास्त्रार्थ ही किया जाय, किन्तु जिससे कोई अपनी प्रजा का पुरुष उनके मज़हब में न फसे वैसा उपदेश किया जाय इसलिये वे छोटे-छोटे खण्डन जो कि मैंने भेजे हैं वे छपवा के योग्य-योग्य पुरुषों को चाहे वे पण्डित हों वा बुद्धिमान् हों बांट कर प्रचार करने से उनके फंदे में कोई भी न फसेगा । आप से आप बहुत-से उपदेशक उसी राज्य के पुरुष हो जायेंगे । इसका बांटना विशेष कर सरदार हाक़म भूमिये थाने वा अच्छे-अच्छे गामों में अथवा जहां कहीं कोई बुद्धिमान् हो इसको देखकर उन ईसाइयों को हटा दे सकेंगे । और यदि श्रीमानो के नियमानुसार उपदेश कहीं करना हो तो वहां राज के नौकर बहुत-से पण्डित हैं जिसको योग्य समझे उसको यह दोनों पुस्तक देके उपदेशक कर देवें ।

२. जैसा श्रीमान् महाशयों ने लिखा है वैसा उपदेशक आर्य समाज से आने में अशक्य नहीं है । किन्तु जो उस पत्र में नियम लिखे हैं उनके अनुसार और ईसाई आदि का खण्डन होना अशक्य है । क्योंकि जब तक उपदेशक झूठ मत को मानेगा और दूसरे झूठे मत के खण्डन में प्रवृत्त होगा कुछ भी न कर सकेगा । जब तक मनुष्य स्वयं झूठी बातों का त्याग करके सत्य बातों में निश्चित प्रवृत्त नहीं होता तब तक वह अलौकिक शक्ति परमात्मा की ओर से नहीं मिलती और न दृढ़ोत्साही वह हो सकता है । यावत् इन ईसाई आदि के सामने वैदिक मतानुसार ईश्वर, धर्म आदि को नहीं मानता और मूर्त्तिपूजा आदि को मानता है तब तक वह जायगा खण्डन करने को आप ही खण्डित हो रहेगा । जैसे कोई किसी को दुर्व्यसन छुड़ाने का उपदेश करता और आप उसी दुर्व्यसन में फसा है उसका उपदेश कोई भी न मानेगा । इसलिये अशक्यता लिखी थी । नहीं तो पण्डित तो क्या किन्तु एक कोई साधारण उपदेशक भी आर्य समाज का आवे तो इनका कुछ भी बल न चले । इसलिये जो उपाय मैंने उनके निवारण के लिये लिखा है वह अच्छा है, परन्तु ईसाई आदि के सामने जब कभी बातचीत हो तब उसको अति उचित है कि उस समय मूर्त्ति और पुराण का पक्ष छोड़ ही के बोले तभी कृतकारी होगा । … [दयानन्द सरस्वती] जोधपुर मारवाड़ [सन्दर्भ ग्रन्थ : ‘ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन’, द्वितीय भाग, पृष्ठ ७४८-७५०, पूर्ण संख्या ७३८, सम्पादक : पण्डित भगवद्दत्त जी, तृतीय संस्करण १९८१ ई०] 

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