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|| ऋषि के मन्तव्यों को लोगों ने नही समझा ||

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|| ऋषि के मन्तव्यों को लोगों ने नही समझा ||
भले ही ऋषि के 200 वर्ष का आगमन मना रहे हों, क्या उनके विचार को जाना ?
आप लोगों को बताया था कि ऋषि दयानन्द के मन्तव्यों को लोगों ने नहीं समझा, और ना ही समझने का प्रयास किया, जिसे ऋषि ने साफ दर्शाया है की मैं परमात्मा किन को मानता हूँ और परमात्मा की कसौटी क्या है भली प्रकार मानव कहलाने वालों को ऋषि दयानन्द जी ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकास के अन्त अपना मन्तव्य को लिखा है जिस पर मैंने आप लोगों को बताया था |
आज लेख का दूसरा भाग आप लोगों के सामने प्रस्तुत है, की ईश्वर विषय को लोगों ने समझना नही चाहा जिसके मन में जो आया उसे ही ईश्वर मान बैठे | जैसा बाबा तुलसी दास लिखते हैं जाके रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी | इस पर ध्यान देने वाली बात यह है की अगर भक्तों के भावना से.प्रभु. अगर अपना मूरत बदल दे तो वह प्रभु का होना तो संभव नही, हाँ खिलौना तो हो सकता है |
यही अज्ञानता है लोगों में, कैसी अज्ञानता है वह भी बाबा तुलसीदास जी से ही सुनें, बिन पग चले, सुने बिनु काना, बिन कर करे विध नाना | इसका अर्थ क्या हुआ,उसी परमात्मा के लिये ही कहा गया, की वह बिना पैर का चलने वाला, बिना कान का सुनने वाला, बिना हाथ का करने वाला |
अब यहाँ उसकी मूरत कहाँ गई अगर उसकी मूरत देखने वाली है फिर वह शारीर धारी ही हुआ, फिर उसे बिना पैर वाला,बिन हाथ वाला, बिन कान वाला बताना यह क्यों और कैसे माना जायगा ? यही कारण बना जैन मत के कुछ विद्वानों ने पुस्तक ही लिख कर जन मानस में प्रस्तुत कर दिया, हिन्दू धर्म के पथ भ्रषट्क तुलसीदास | आज तक जिसका जवाब देना ही इनके लिये मुनासिब नही हो सका |
दूसरी बात ऋषि दयानन्द ने परमात्मा के जो गुण बताये हैं उसपर हमें ध्यान देना चाहिए, की परमात्मा में गुण ही गुण है अबगुण परमात्मा में होना संभव नही, अगर किसी भी प्रकार अबगुण हो, तो परमात्मा होना संभव ही नही है |
इधर मानवों में दोष और गुण दोनों ही है, किसी में कम किसी में ज्यादा, फिर परमात्मा निर्माण करने वाला, और मानव उसके निर्मित | यहाँ भी परमात्मा सर्वज्ञ, यहाँ मानव अल्पज्ञ परमात्मा सृष्टिकर्ता, और मानव उसकी सृष्टि का एक हिस्सा |
वह परमात्मा नारायण, और जीव नर, परमात्मा सर्वव्यापक, मानव एक देशी | यहाँ भी यह प्रमाण मिलगया की राम एक देशी थे, जब राम जंगल चले गये,तो क्या वह राम अयोध्या में थे ? मात्र इतना ही नही राम अकेले नही गये थे जंगलमें साथ पत्नी सीता भी थीं, अगर राम परमात्मा हैं तो सीता कौन है ? परमात्मा सबके माता,पिता,भाई और बन्धु हैं, किन्तु राम के साथ लक्ष्मणजी थे, जो राम के भाई थे, यह स्पस्ट हो गया की राम लक्ष्मणजी के भाई थे किन्तु दशरथ के भाई नही ?
किन्तु परमात्मा सब के भाई,और पिता भी यहाँ राम दशरत के पिता नहीं |
ऋषि ने वेद का प्रमाण दे कर कहा परमात्मा निराकार है, अब कोई कहे वह साकार भी है, ऋषि ने जवाब दिया नही वह निराकार ही है | कारण साकार होने पर सभी दोष लगेंगे परमात्मा पर, जैसा,एक देशी होना,अल्पज्ञ होना आदि अबगुणों में घिर जायेंगे | यह सभी दोष पूर्ण है वह जीवात्मा में संभव है किन्तु परमात्मा में नही | अगर यह कहे की परमात्मा एक है और परमात्मा में दो विरोधी गुण है, जैसा वह सगुण है और निर्गुण भी है |
ऋषि दयानन्द ने इसी का स्पष्टीकरण दिया,हाँ वह परमात्मा एक ही है और उसमें दो विरोधी गुण भी है | यहाँ लोगों का कहना कैसा है, की वह सगुण वाला,अर्थात साकार, और निर्गुण माने निराकार |
ऋषि ने कहा नही यह अर्थ नही है सगुण, और निर्गुण का मतलब है ? सगुण का मतलब है जिसमें वह गुण हो सगुण, जिसमें वह गुण ना हो वह निर्गुण | ऋषि ने और स्पष्ट किया की सृष्टि को रचने में वह सगुण है पर हल चलाने में वह निर्गुण है | अर्थात जो काम परमात्मा के जिम्मे हैं उसे अन्जाम देने में वह सगुण है, और जो काम उसके जिम्मे में नही है, उसे अन्जाम ना देने में वह उसमें निर्गुण है | राम जैसा जंगल जाने में परमात्मा निर्गुण है, राम जैसा सीता से शादी रचाने में परमात्मा निर्गुण है, दशरथ जैसे के पुत्र होने में परमात्मा निर्गुण है आदि |
ऋषि ने और भी अपना मन्तव्य दिया, कि मै परमात्मा उसीको मानता हूँ और मानव मात्र को उसे ही परमात्मा मानना चाहिए जो सर्वशक्ति मान है | तो यहाँ मनचले लोगों ने माना कि जब वह सर्वशक्ति मान है तो अपनी इच्छा से जो चाहेगा सो करेगा ? ऋषि ने कहा भोले लोगो वह अपने मन में चाहने वालों में नही है ? कारण अगर इच्छा होगी तो अनिच्छा भी होना होगा, किन्तु परमात्मा सदा सर्वदा एक रस में ही रहने वाला है उसकी कभी भी इच्छा नही होती |
अगर जो मन करे वही करने लगे फिर पागल किसे कहा जायगा ? और अगर जो चाहे सो करने लगे तो औरों के साथ न्याय नही होगा | जैसा इस्लाम वालों कि मान्यता है अल्लाह जिसे चाहे खूब दे,और जिसे चाहे ना दे,ऋषि ने कहा यह काम तो परमात्मा का नही हो सकता कारण वह न्यायकारी होने से किसी को कम किसी को ज्यदा नही दे सकता ? कारण मानव पाता है अपने कर्मों से, जो जितना करेगा, उसे उतना ही मिले गा, ना ज्यादा ना कम ? कारण यही तो उसकी न्याय व्यवस्था है, अगर किसी को कर्म के बगैर ज्यादा दे दिया तो औरों के साथ न्याय नही होगा यह दोष है, और परमात्मा में दोष होना संभव ही नही है |
मैंने अपनी पुस्तक वेद और कुरान की समीक्षा में भली प्रकार दर्शाया है,इसी विषय को अल्लाह और ईश्वर में भेद है, दुनिया के लोग इस सत्य को जानते तक नही है, अल्लाह तथा ईश्वर दोनों में एक गुण नही है फिर दोनों का एक होना संभव क्यों और कैसे हो सकता है भला ? ऋषि दयानन्द ने इसी पर ही अपना मन्तव्य दिया है अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के अन्तिम चार समुल्लासों में | 11
समुल्लासों में ऋषि ने यही दर्शाया हिन्दू कहलाने वाले किसे परमात्मा मानते हैं, किसे धर्म मानते हैं, किसे धर्म ग्रन्थ मानते है, किसे देवी और देवता मानते हैं ?
इनका मानना कितना सही है और कितना गलत,सत्य और असत्य की कसौटी क्या है उसे सामने उजागर किया है | हिन्दुओं के लिए दुर्भाग्य तो यह है की अपनी गलतिओं को छोड़ना तो नही चाहते, और सबसे बड़ी कमी है की सुनना भी नही चाहते | जबकि ऋषि कि वैदिक मान्यता है जिसे उन्हों ने आर्यसमाज के नियम चार{४} में लिखा है सत्य को धारण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्दत रहना चाहिए | यही मानवता है,तो हमें मानव कहलाने के लिए सत्य को धारण करना ही चाहिए | धन्यवाद महेन्द्रपाल आर्य =वैदिकप्रवक्ता =
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