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ऋषि दयानन्द का परिचय ही वैदिक सिद्धांत है |
Mahender Pal Arya
|| ऋषि दयानन्द का परिचय ही वैदिक सिद्धान्त है ||
सृष्टि के प्रथम से विशेष कर दो हिस्सों में बटे हैं, कारण पक्ष दो ही है सत्य असत्य, धर्म अधर्म, विद्या अविद्या, पाप पूण्य, प्रकाश अन्धकार, आकाश पाताल, इसप्रकार सृष्टि नियमनुसार हर जगह दो ही हैं, अथवा दो ही होते हैं |
इसी में एक पक्ष है वैदिक, और दूसरा है अवैदिक, वैदिक वह है जो वेद सम्मत हो, वह वैदिक, और जो वेद विरूद्ध हो वे अवैदिक | ऋषि दयानन्द की मान्यता यह रही की, महाभारत काल के कुछ पहले से ही लोग वैदिक मान्यता से दूर होते गये | विद्वान जन भी आलस्य और प्रमाद के शिकार हो गये | जैसा आज भी है ऋषि दयानन्द ने विष पान कर भी यही वैदिक सिद्धान्त को मानव समाज के सामने रखा, और भारत के सभी मठ मन्दिर, और गिर्जा मस्जिद गुरुद्वारे वालों के सन्दर्भ में, अपना विचार दिया, की भले ही यह परमात्मा के नाम से बनायागया अथवा जा रहा हो, किन्तु परमात्मा को जानने की बात तो न मन्दिर में है, न मस्जिद में, है, और ना ही गिर्जा गुरूद्वारे में है |
भले ही यह सभी स्थान परमात्मा के नाम से बने हों, बनाये गये हों, किन्तु परमात्मा यहाँ नहीं मिलते और ना यह परमात्मा का घर है | कारण परमात्माको किसी स्थान विशेष में जानने और मानने का मतलब है उसे न पहचानना अथवा ना जानना ही है |
कारण यह ब्रह्माण्ड ही परमात्मा के अधीन हें, ब्रह्माण्ड के अधीन परमात्मा नहीं है, व्यवस्था परमात्मा के अधीन है परमात्मा किसी के अधीन नहीं है | इसे भली प्रकार समझना होगा, परमात्मा के नियंत्रण में सब कुछ है, किन्तु परमात्मा किसी के भी नियंत्रण में नहीं है | या यह कहिये की परमात्मा के ऊपर किसी का कोई नियंत्रण नहीं चल सकता | वह सर्वशक्तिमान है | अर्थात उसीके व्यवस्था में यह ब्रह्माण्ड है, उसे जानना बहुत जरूरी है मानव कहलाने वालों के लिए |
उसे ना जानने का नतीजा यह हुवा की जिसके मनमें जो आया उसे अपने दिमाग लगाकर उसे परमात्मा बताया सुनाया और कहा भी | और सृष्टि नियम विरुद्ध कार्य को भी उसी के नाम से मानने लगें | जैसा मन्दिर वालों का मानना है मूर्ति ही परमात्मा है | उसी के सामने हाथ जोड़ना उसीसे कुछ कहना मांगना आदि आदि |
गिर्जा वालों ने सबसे बड़ी गलती यह की, उसी परमात्मा के एकलौता बेटा किसी एक व्यक्ति हज़रत ईसा को माना है | जब की परमात्मा का कोई एक बेटा होना यह पक्षपात का दोष लगेगा परमात्मा पर, लोगों ने इसे जानने का प्रयास भी नहीं किया | किसी कुँवारी से संतान को जन्म देने वाले को परमात्मा कहा माना है, जो बिलकुल असत्य है |
मस्जिद वालों ने परमात्मा अधीन चाँद को टुकड़ा होगया कहा, जब की चाँद का टुकड़ा किसी भी प्रकार संभव नहीं, कारण चाँद ईश्वर के नियंत्रण में है उसपर किसी मनुष्य का हस्ताक्षेप सृष्टि नियम विरुद्ध है | फिर कहा एक बाँझ महिला ने संतान को जन्म दिया, वह भी एक बूढ़े आदमी से | यह सभी बातें सृष्टि नियम विरुद्ध है, सृष्टि पर नियंत्रण रखने वाले का नाम परमात्मा है | पर मस्जिद वालों की मान्यता है इन्शाअल्लाह, अल्लाह चाहे तो | यह सारा काम हो रहा है, यह मान्यता गलत इसीलिए हैं की इस सृष्टि को सुचारू तरीके से चलाने वाले का नाम ही परमात्मा है | सृष्टि नियम विरुद्ध कोई भी काम परमात्मा का नहीं हो सकता |
इसी प्रकार सभी लोगों ने अपने अपने तरीके से परमात्मा को माना है, जिसके मनमें जो आया उसे परमात्मा के नाम से अपना मतलब लगाया है अथवा अपना स्वार्थ जोड़ा है |
जब यही मान्यता ऋषि दयानन्द की रही फिर वह ऋषि कैसे कह सकते हैं, परमात्मा तेरी इच्छा पूर्ण हो ? क्या यह वाक्य ऋषि के हो सकते हैं, जब हम दूसरों को कहेंगे और अपने पास उसी मान्यता को रखेंगे, फिर दुसरे को गलत कहने का क्या अधिकार होगा ?
गलत तो गलत ही है वह किसी के भी पास हो, यही कारण बना ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश का एगारवां समुल्लास पहले लिखा | उसके बाद आगे की बात सभी पाखण्ड परम्परा को दर्शाया ऋषि की मान्यता यह रही की इंशाअल्लाह शब्द ही गलत है, क्यों की उसकी इच्छा नहीं होती, वह इच्छा आदि गुणों से रहित है | वह निर्विकार है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं है , वह अनुपम है, उसकी उपमा किसी से भी दिया जाना संभव नहीं ईश्वर को जानने के लिए एक मात्र सहायक है वेद, दूसरा कोई उपाय नहीं है परमात्मा को जानने का | किसी भी मजहबी ग्रन्थ से परमात्मा को जानना स्म्ब्व नहीं कारण सभी मजहबी ग्रन्थ मनुष्यों के बनाये हुए हैं मनुष्यों के अपने विचार है वरना यह दोष पूर्ण बातें क्यों और कैसी होती ? लोगों ने अपना स्वार्थ के लिए ही जिसके मनमें जो आया वही लिख दिया |
इस प्रकार अनेक अवैदिक मान्यता को लोगों ने, लिखा है, जैसा > प्रभुकेदरबार में सब लोगों का खता | यह मान्यता कुरान की है अल्लाह ने कलम बनाई जिसमें लिखा जाता है उसे आयमाल नामा कहा जाता है | लिखने के लिए भी दो फ़रिश्ता लगाया है जो पाप और पूण्य को लिखतां है | लिखना उसे पड़ता है जो अल्पज्ञ हैं, भूलने की बिमारी जिसमें हो वही लिखता है | जो सर्वज्ञ है उसे लिखना नहीं पड़ता, फिर कहते हैं जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवन यज्ञ से यह भी उसी तरीके की बातें है | जब ऋषि दयानन्द की बताये वैदिक सिद्धांत को दयानन्द के बनाये आर्य समाज वाले ही नहीं जानते तो दुनिया के लोग क्या जानेंगे ?
धन्यवाद के साथ महेन्द्रपाल आर्य =9 /11/18