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कौन थे वह ऋषि दयानन्द जिन्हें लोग नहीं जानते ?

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||कौन थे ऋषि दयानन्द,जिन्हें लोग नहीं जानते || 1824 में गुजरात प्रान्त के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे बच्चे का नाम मूलशंकर रखा गया.था, माता पिता ने बड़े यत्न के साथ पालन पोषण किया,बचपन से ही कुशाग्रह बुद्धि के थे | पिता बड़े धार्मिक प्रवृतिके.थे घरपर पूजापाठ की रिवाज थी.और एक शिव रात्रि के दिन पिता ने अपने पुत्र से कहा आप भी वर्त रखो |
पिता के आदेश का पाल तो करना ही था,इसी बात को सामने रख कर पुत्र मूलशंकर ने पूजा अर्चना के लिए पिता के साथ मन्दिर को चल दिए | नियमानु सार लोगों ने पूजा की रात्री जागरण करना था, परलोग सब पूजा करने के बाद निद्रा में मग्न थे | मूलशंकर जो पहली बार शिव रात्रि का व्रत रखे थे जिनको यह बताया गया था शिव के तीन आँख है,और रात्रिकालीन समय में वह दर्शन देते हैं अदि | उसी शिव को देखने के लिए मूलशंकर आंख में पानी का छिटा लगाकर जाग रहे थे,की कहीं मै सोगयाऔरशिव का दर्शन मुझकोन हो सके ? बोहुत रात्रि होजाने से लोग तो सब पूजा कर ही सो रहे थे, मूलशंकर जाग रहे थे, अब तक शिव का दर्शन तो नहीं हो सका पर,एक चूहा को निकलकर शिव लिंग.पर चढ़ाये सामानों को खाते और गंदा करते मूलशंकर ने देखा |
अब इस दृश्य को देख मूलशंकर ने सोचा की सही मे यही शिव है.जो अपने उपर से चूहा को नहीं भगा सकते? मन में अनेक शंकाए ले कर घर पोहुचे,अपनी माता जी से पूछा उनके पास जवाब नहीं था,पिता जी के घर आने पर उनसे भी जिज्ञासा किया | किन्तु उनके उत्तर से भी वह संतुष्ट नहीं हो सकेऔर अपने मन ही मन शिव कौन है कैसा है यही सवालों को लेकर चिन्तित रहने लगे |
एक दिन मन बनाया को उसी असली शिव को पाना चाहिए, घरसे निकल गये कई दिनोमे पकड़ करलाया गया,फिर भागे इस प्रकार एक दिन ऐसे भागे की हाथ ही नहीं आये |गुरुपूर्णानन्द जी के पास पोहुचे उन्हों ने सुझाव दिया की मेरे पढ़ाये एक विद्यार्थी है,जो मथुरा में रहते हैं आप उनके पास जाव वही आप को सच्चा शिव का पता बता देंगे,मेरा शारीर जीर्ण हो रहा है तो आप उन्ही के पास जाएँ |
अब तक मूलशंकर से सन्यास ले कर दयानन्द बनचुके थे, पता पाकर मथुरा में बिरजानन्द जी के कुटिया में जा पोहुचे | बाहर से दस्तक दी,तो अन्दर से आवाज आई कौन?तो दस्तक देनेवाले युबा सन्यासी.दयानन्दने जवाब दिया मै यही तो जानने के लिए आया हू की मै कौन हूँ ? यह सुन कर प्रज्ञा चक्षु गुरु बिरजानंदजी मन.ही मन प्रसन्य हो गये, और यह सोचने लगे की न मालूम अबतक मैंने इतने विद्यार्थी को पढ़ाया, किसी ने भी यह नहीं कहा की मै कौन हूँ ? यह तो कोई जिज्ञासु और होनहार ही हो सकता है| यह सोच कर दरवाजा खोल दिया आपस में कुछ वार्तालाप हुई, और जिज्ञासु मन ने कहा मै आप.के.पास.सच्चा शिव को जानने के लिये आया हूँ | गुरु विरजानन्द ने पूछा वह तो ठीक है पर अपने खाने पिने की व्यवस्था, तो दयानन्द के कहा आप उसकी चिंता न करें मै भिक्षा मांग कर भी यह काम करलूँगा |इस बात से गुरूजी प्रसन्न हो गये और पढ़ाने के लिए बात हो गई. अब गुरु जी ने पूछा की आपने कुछ पढ़ा या नहीं,अगर पढ़े हैं तो कौन कौन सी किताबे,आपने पढी ?
दयानद अब तक जिन किताबों को पढ़ चुके थे उनसब का नाम लिया. किताबों का नाम सुनते ही गुरु जी ने कहा इन सभी किताबों को जमना में बहाकर आवो, मानो दयानन्दजी ने सिनेमे पत्थर रखकर.उन किताबों को जमना में बहाया | कारण जो जिन किताबों को पढता है.उससे तो लगाव उसका.होता.ही होगा| फिर भी यहाँ यह प्रश्न है, की गुरूजी तो देख नहीं पाते थे, पर किताबों से उनकी क्या दुश्मनी थी? इसका सीधासा जवाब है की गुरु जी ने उन किताबों का नाम सुनते ही अंदाजा लगा लिया था की इन किताबों को जब तक भुलाया नहीं जायेगा तब तक सही और सच्ची पाठों को याद करना ही संभव नहीं है| इस के लिए एक छोटा सा उपमा ज़रूरी है वह, यह की कोई एक भाई गाना बजाना जनता था,किन्तु किसीके पास सिखा नहीं अपने आप ही जो सिख पाया | किसीने उसे कहा की कोई संगीताचार्य सेसिखलो, उसने देखा सुझाव ठीक है,खोजता हुवा किसी संगीताचार्य के पास गया कहा मै संगीत सीखना चाहता हूँ उसने कहा मै काम यही करता हूँ | सिखने वाले ने पूछा आप का कोर्स कितने दिनोंका है ? संगीताचार्य ने कहा मै 6 महीने में अपना कोर्स पूरा करवाता हूँ | सिखने वालेने कहा मै तो कुछ जनता हूँ मुझे भी पूरा समय लगाना होगा ? संगीताचार्य ने कहा आप क्या जानते हैं पहले सुना दें,फिर देखता हूँ आप क्या जानते हैं और कितना दिन लगाना है | सिखने वाले ने बाजा में हाथ रखा और गाना शुरू ही किया था, आचार्य ने रोक कर बोला मेरे भाई आप अगर मुझसे सीखना चाहते हैं, तो पूरा वर्ष लगाना होगा आपको| सिखने वालेने कहा जनाब आप का कोर्स ही 6 महीने का है,तो मेरा वक़्त किसलिए ख़राब करना चाहते हैं ? फिर संगीताचार्य ने कहा मेरे मित्र आप जो जानते हैं, उसको भुलाने में हुझे 6 महीने लगेंगे, उसके बाद ही मैं अपना कोर्स आप से पूरा करूँगा | यानि आप जो जानते हो उसे पहले भूलना पड़ेगा जभी मै अपना कोर्स पूरा कर सकता हूँ |
हम दुनिया वालों ने भी सबसे पाठ ही गलत पढ़ेथे, तो गुरु बिरजानंद जी ने दयानन्द को पहले की पढ़े किताबों को भूलने का उपदेश दिया | की आप जितने भी पढ़े हैं उसे पहले भूलें, जभी मैं आप को सही और सच्चा पाठ पढ़ा पाउँगा, और सच्चा शिव का भी पता बता दूंगा |
अब प्रश्न है की क्या यह सही है, की हम सबने पाठ ही गलत पढ़ा,या हमें सबने गलत पढाया ? इसका एक एक कर जवाब लें, की सहीमे पाठ हम लोगोने कहाँ कहाँ गलत याद किया, जिस अर्जुन ने अपनी जिन्दगी में, झूठ नहीं बोला, दुनिया वालों ने उन्हें मात्र वीर के नाम से पुकारा | और जिन्होंने जुवा खेला अपनी संपत्ति के साथ अपनी पत्नी को भी दावों पर लगा दिया, और हारे भी, तो दुनिया के लोगोंने.उन्हें धर्मराज कहा | जबके अदि सृष्टि में परमात्मा ने वेद के माध्यम से अपने संतानों को उपदेश दिया खेती कर जुवा मत खेल | राजा अश्वपति चिल्ला कर कहरहे हैं की हमारे देश में कोई चोर नहीं व्यभीचारी नहीं कोई जुवाड़ी नहीं,शराबी नहीं | इस के बाद भी अगर एक जुवाड़ी को धर्मराज कहा गया तो फिर झूठ कौनसा है और सचभी क्या है, क्या हम लोगों ने कभी विचार किया इसपर समय किनके पास है ?
मात्र यही नहीं दुनिया वालों ने,गौतमबुद्ध,को महात्माबुद्ध कहा, महात्मा का अर्थ है जिनकी आत्मा महान हो,तोआत्माको महान बनाने.का तरीका क्या है ? जो,यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,ध्यान,धारणा और समाधी को अपने जीवन में उतार कर अपनी आत्माका सर्वागीण विकास करे,और अमात्माकी शुद्धी कर,आत्मा के द्वारा परमात्मा को जाने,उसी आत्माका नाम महात्मा है | अब विचारणीय बात है की गौतमबुद्ध ने तो परमात्मा को माना ही नहीं,और वेद को भी नहीं माना, मनुमहाराज लिखते हैं नास्तिको वेद निन्दकः | यानि जो वेद निंदक [ वेद को न माननेवाला ] वह नास्तिक है |
फिर वेद में उपदेश है वेदो अखिलो धर्मोमुलम,अर्थात वेद ही अखिल विश्व के धर्म का मूल है |और उसी वेद को जो नहीं माना फिर भी दुनिया वालों ने उन्हें महात्मा कह दिया | इसमें सच कौनसा है और झूठ क्या है ? इधर 1857,से 1947, तक 90 वर्षो से भारत वासी गाजर और मुली की तरह काटते रहे न मालूम कितने बहनों की सुहाग उजड़े,कितने माताओं ने अपने लाल को खोया,कितने बहनों ने अपने भाई को अंतिम विदाई दीं | इसके बाद भी आज तक यही सुनाया जा रहा है, सावर,मति के संत तूने कर दिया कमाल, आज़ादी हमें दे गए बिना खड़ग बिना ढाल | 90 वर्ष तक लोग मरे वह सही है या बिना खड़ग बिना ढाल आज़ादी मिली वह सही है ?पाठ तो इस प्रकार सब जगह गलत को सही और सही को गलत हमें शुरू से अब तक पढ़ाते आये है,अब कोई गुरु बन कर पाठ पढाया.कोई आचार्य बन कर पाठ याद कराया,या फिर कोई सन्यासी बनकर हमेंपाठ गलत पढ़ाते गये |
ऋषि दयानन्द ने मानव समाज के सभी बुराईयों को दूर करने का भरसक प्रयास किया अब वह धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक बुराई ही क्यों न हो सभी प्रकार के अन्धविश्वास को दयानन्द ने जड़से उखाड़ा यहाँ तक की हरिद्वार में पाखंड खंडनी पताका फहराकर धर्म के नाम से पाखंड फ़ैलाने वालों को,यह बताने का प्रयास किया की यह काम मनवता का नहीं जो धर्म के नाम से लोगों को लुटा जा रहा है |
जिस मानव समाज को लोगों ने विभिन्न जाती, धर्म ,व सम्प्रदाय,वर्ग,उपवर्ग,उच्चवर्ग,निम्नवर्ग, और सवर्ण, अवर्ण, में विभाजीत कर मानव समाज में आपसी घोर मतभेद पैदा करदिया था लोगोंने | ताकि मानव जाती आपसी फुट का शिकार हो कर,अपने विनाश का कारण खुद रच सके,या कर सके,मानव आपस में अपने आपमे तबाह व बर्बाद हो जाये या फिर पतन की ओर जा सके|
इन परम्परा ने आदमीको इतना संकीर्ण और विवेक हींन बनादिया था की आदमी विभिन्न मतों का चौकीदार बन चूका है,जिसका मात्र एक ही कर्तव्य है,की यह मानव समझदार कहलाने वाले और अकल मन्द होकर भी अन्य मतों के खुटोसे बन्ध कर मानव समाज को, युद्ध के लिए ललकारना चालू कर दिया था | और साम्प्रदायिक दंगा भड़का कर समाजमे खून खराबा तक करने में संकोच नहीं करते, अगर इन्सान को किसी मतों के खुटो में बंधना ही है, तो मानव के लिए मानवता से बढ़कर और कौन सा धर्म हो सकता है ? जो मानवता और इंसानियत का सार यही है, की मानव मात्र को अपने बराबर समझ व समस्त जीवो को अपने समान समझना चाहिए| जैसा वेदो का आदेश है, आत्मवत् सर्वभूतेषु | समस्त आत्माओ को अपनी आत्मा के समान जानना चाहिए,यह है मानवता वैदिक विचार धारा यही सिखाती है मानव मात्र का इष्टदेव,मानव मात्र का धर्म,मानव मात्र का धर्मग्रन्थ,एक,मानव मात्र की उपासना विधी एक, मानव मात्र का जाती एक, चार हैं हमारे वर्ण,जो ब्राह्मण,क्षत्रीय,वैश्य,और शुद्र,जो गुण,कर्म और स्वभाव के ऊपर चयन होता है जन्मसे नही,राजाराममोहन,राय के बाद ऋषि दयानन्द ने इसका प्रचार किया |बाल विवाह का घोर विरोध,सतीप्रथा का विरोध,विधवाविवाह अदि कामों को राममोहनराय के बाद ऋषिदयानन्द ने ही इसको आगे बढाया | समाज सुधार के काम जो करे वह समाज सुधारक कहलाते हैं,किन्तु जो उसी सुधार को दूर्र्त गति दे उन्हें मात्र सुधारक नहीं अपितु उन्हें क्रांति कारी कहते हैं तो ऋषि दयानन्द समाज सुधारक के साथ एक क्रांति कारी थे | जिन्हों नेजीवन में इसी मानव सुधार के लिए अनेक बार विष पाण किया ,की हमारे आनेवाली संतानों को किसी प्रकार की मुसीबतों का सामना न करना पड़े |इनका नाम ही था दयानन्द जो अपने ऊपर मुसीबत लेकर हमें सुख दे गये, परमात्मा से मिलने का रास्ता बताया, सभी प्रकार के मुसीबातों से छुड़ाया उनके नक्शों कदम पर चलकर ही हम मानवता की रक्षा कर सकते हैं,यही दीपावली के दिन हम लोगों से अंतिम विदा परमात्मा को धन्यवाद देते हुए लिया |

महेन्द्र पाल आर्य–यह लेख मैंने पिछले 9 nov 2013 को लिखा था आज 9 nov 17 को मेरे किसी मित्र ने मेरे पेज में डाला है मैंने आप लोगों तक पहुंचा दिया |

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