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            ||जो सत्य को छोड़ता है वह मानवों के कोटि में नहीं आते ||

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||जो सत्य को छोड़ता है वह मानवों के कोटि में नहीं आते ||
स्वामी श्रद्धानन्द जी को बनाने वाले – गुरु दयानन्द ही थे ||
स्वामी श्रद्धानन्द जी अगर मुन्शी राम से महात्मा मुंशीराम और स्वामी श्रद्धानन्द बने तो केवल सत्य को धारण कर ही बने, सत्य को बताने वाले उनके गुरु ऋषि दयानन्द ही थे | गुरु शब्द कोई गलत नही है, गुरु का अर्थ है रास्ता दिखाने वाला, ऋषि दयानन्द ही थे कि भटके को रास्ता बताया गुरु कहलाये | जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाते वही गुरु कहलाता है |

स्वामी श्रद्धानन्द जी का प्रथम जीवन अंग्रेजो से प्रभावित था सभी प्रकार के व्यसनों वाला जीवन था बड़े पिता के पुत्र होने वालों का वैभव पूरा उनके जीवन में था | पेशे से वकील थे लेकिन यही सत्य ने उन्हें वकालत से रोका कि हम जजों को माय लार्ड कैसे कहूँ, जो केवल ईश्वर के लिए प्रयोग होता है ?

यही सत्यता को उन्होंने अपने गुरु ऋषि दयानन्द से लिया और जाना सत्य क्या है सत्य को जानते ही सारा कुछ छोड़ दिया जो व्यसन उनके जीवन में थे, इसमें उनकी श्रीमती माता शिव देवी जी का भी बहुत बड़ा योगदान रहा |

एक वह दयानन्दी हुए स्वामी श्रद्धानन्द जिन्होंने अपने गुरु के बताये सिखाये हुए सभी सत्य को अपने जीवन में उतरा था और आज के दयानान्दी कहलाने वाले जो अपने को आर्य समाजी भी कहते हैं वह सत्य के नजदीक आना भी नहीं चाहते | अगर इन्ही सत्य को उन्हें सुनाया जाये तो विरोध करने लगते हैं और सत्य बताने वाले का विरोधी बन जाते हैं | सत्य में इतनी शक्ति है कि घर बार सबसे अलग करवा देता है | आप केवल सत्य बोलना शुरू करें तो देखते जायेंगे एक एक कर सब आपके विरोधी हो जायेंगे |

सत्य वह धरोहर है कि दुनिया कि कोई भी चीज उसे खरीद नहीं सकता, इसका जीता जगता प्रमाण ऋषि दयानन्द ही है राजा महाराजाओं ने धन संपत्ति सारा कुछ से मालामाल करना चाहा किन्तु ऋषि दयानंद सत्य के बल पर सबको ठुकरा दिया | यह है सत्य में शक्ति परन्तु आज उन्हीं दयानन्द के नाम लेने वाले सत्य के नजदीक आना ही नहीं चाहते | अगर सत्य को अपनाते तो सम्पत्ति पर काबिज कैसे होते ?

एक तरफ तो ऋषि दयानन्द ने राजा महाराजा कि धन व वैभव को त्याग दिया, और आज के दयानान्दी धन बटोरने के लिए सभी संस्थाओं में केवल कब्ज़ा ही कब्ज़ा जमाये बैठे हैं | सन्यासी महात्मा कहलाने वाले भी इसमें शामिल हैं | यहाँ तक जो जो अपने को विद्वान् कहलाते वह भी सत्य को तिलांजली देकर नियमों को भी ताक पर रखते हुए असत्य के पक्षधर बन गये सत्य को अपने जीवन में आने देना ही नहीं चाहते |
किन्तु सही पूछें तो हमारे यहाँ ठीक इसका उल्टा ही है, की रास्ता दिखाने के बजाये रास्ता भटकाने वाले को ही गुरु कहा जाता है | यह मत समझना की यह अभी से ही चालू हुआ, नही हमारे देश में बहुत पहले से ही,यह परम्परा चल रही है, हम लोगों ने इस पर चिन्तन और विचार ही नही किया, और कौवा कान ले गया, सुनकर उस कौवे के पीछे भागे, अपने कान में हाथ लगाकर ही नही देखा की कान अपने पास है अथवा नही ?
हमारे लोगों में सही को गलत, और गलत को सही कहने की परम्परा आज से नहीं किन्तु बहुत पहले से ही है | हमारे लोगों ने सही को सही कहने की हिम्मत नहीं जुटा सके और गलत को ही सही कहने लगे, यातो गलत को गलत कह नही पाए और गलत को ही सही कह दिया | मै कुछ प्रमाण दे रहा हूँ धैर्यपूर्वक इस पर विचार करें, की सही क्या है और गलत क्या है ?

जैसा अर्जुन ने अपनी जिन्दगी में कभी झूठ नहीं बोला, अपने बड़े भाई को पाशा अथवा, जुवा खेलने से रोका भी | हमने उन्हें क्या उपाधि दी, वीर कहा, इसके सिवा उन्हें और कोई उपाधि नही दी गई और जिन्होंने जुवा खेला, अपनी संपत्ति हारे, फिर भी मन नही भरा अपनी पत्नी को भी दावं पर लगाया, इसपर दुनिया के लोग उन्हें धर्मराज कह रहे है | जबकि वेद में परमात्मा का उपदेश है खेती कर जुवामत खेल |
योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने भी मना किया कई बार समझाया,फिर भी नही माने | जबकि माता द्रौपदी ने सबको निरुत्तर किया, और पूछा की महाराज ने अपने को दावंपर पहले लगाया या परिवार को ?
जवाब मिला अपने को, तो माता द्रौपदी ने कही, जब महाराज खुद हार गये तो परिवार पर उनका अधिकार कैसे रह गया ?
भीष्म पितामह भी मूक दर्शक बने रहे गलत का विरोध नही कर सके | अथवा जान बुझ कर नही किया, सत्य कहने की हिम्मत ही नही थी, कारण सत्य कहना इतना आसान काम नही है, सत्य कहने की हिम्मत होनी चाहिए, सत्य कहने के लिए, परमात्मा से अटूट सम्पर्क, और जानकारी होनी चाहिए, फिर कोई सत्य कह सकता है, वरना सत्य कहने में भीष्म जैसों ने भी नही कह पाए|
हर कोई ऋषि दयानन्द नही बन सकते की सत्य कहने के लिए लोगों के दिए विष के हलाहल पी गये | या तो हम पीछे चलें तो आदि गुरु शंकराचार्य जी को भी देखते हैं सत्य की प्रतिष्ठा में जिन्होंने दुनिया वालों के सामने वेद को आगे किया, और कहा वेद में मूर्ति पूजा नही है |
इस सत्य को किसी ने प्रस्तुत किया तो उनका नाम शंकराचार्य ही था | जबकि आज के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द जी 24 अवतार की बात कर रहे हैं |
मै पूछना चाहूँगा स्वामी स्वरूपानंद जी से, की क्या यह मान्यता आदि गुरु शंकराचार्य जी की थी ?
अथवा वेद में अवतारवाद की कोई चर्चा है ? फिर आज यह 24 अवतार कहाँ से आगये जिन आदि गुरु को वेद उद्धारक कहा गया उन्ही के गद्दी पर बैठकर वेद विरुद्ध कैसे बोलने लगे?
जिस शंकर ने उस पाषाण काल में डंके की चोट कहा वेद में मूर्ति पूजा नही है, जैनियों के सामने ढाल बनकर खड़े हो गये राजा महाराजाओं को अपने बिश्वास में लेकर, न मालूम सम्पूर्ण भारत में मूर्तियों को तोड़ने का अभियान चलाया और आखिर यही जैनियों के शिकार बने, दो जैनी शिष्य बनने के बहाना में उन्हें विष देकर मारा |
यह हिन्दू अपने पूर्वजों के इतिहास को पढ़कर नही देखा, की हमारे पथप्रदर्शकों ने मात्र सत्य के प्रचार के लिए लोगों के दिए विष को स्वीकार किया, किन्तु सत्य को नहीं छुपाया |
यह है हमारा इतिहास, उस काल से अगर यही सत्य को हम धारण करते, तो आज यह चाँद मियां को भगवान कहना नही पड़ता ? यह हिन्दू कहलाने वाले सही क्या है और गलत क्या है, खांड और खल में भेद क्या है नही जाना |
और न हक़ ही आस्था आस्था चिल्लाकर, धर्म में मिलावट कर दिया और कहने लगे मानो तो देव न मानो तो पत्थर | यह अकल के दुश्मन नही जानते की धर्म में –आस्था –बिश्वास मान लेना –यह सभी बातें मानना संभव नही | किन्तु जो वस्तु जैसा है उसे ठीक वैसा जानना- मानना- और कहना ही धर्म है |

कारण अगर आप कहें मानो तो देव न मानो तो पत्थर = तो आप एक मुठ्ठी रेत हाथ में लेकर उसे चीनी मान लें, अथवा उसी रेत को चीनी बनाकर दिखादें ? क्या यह संभव है ? कदापि नही मतलब यह निकला धर्म वही है यथार्थ बोलना ही धर्म है |
साईं को आपके भगवान कहने पर भगवान होना, अथवा उनसे मनोकामना पूर्ण करवाना, यही अधर्म है | पहले हमे जानना होगा सत्य क्या है, जो वस्तु जैसा है, तीनो काल में उसे ठीक वैसा ही जानना, मानना और कहना ही धर्म कहलाता है |

इस सत्य से मानव समाज जितना दूर होते गये, उतना ही अधर्म बढ़ता गया | तो हमारे बड़े बड़ों ने ही सत्य को भूले तो छोटों से सत्य पर चलना और, चलवाना कैसे संभव हो पाता ? पर हम लोग यह किसलिए भूल जाते हैं की हमारे कुछ महापुरषों ने सत्य कि प्रतिष्ठा के लिए विषपान कर भी सत्य को अमर किया या सत्य को जीवित रखा है |
हम यह किसलिए याद नहीं रखते की सत्य को  कभी पराजित करना संभव नही है, सत्य प्रतिष्ठा में भले ही देर लगे किन्तु सत्य का नाश नही होता | जैसा धर्म का जय अधर्म का नाश है ठीक उसी प्रकार सत्य के साथ भी यही बात है |

कारण परमात्मा सत्य है, सत्य वेद है, और परमात्मा को पाने के लिए भी अहिंसा के बाद सत्य ही है, कारण सत्य को पाए बिना परमात्मा का पाना ही संभव नही |

इस लिए यह बात भी याद रखनी चाहिए की भले ही कोई साईं को पा जायें, किन्तु परमात्मा को नही पा सकते | कारण परमात्मा को पाने के लिए सत्य को पाना जरूरी है |

जो लोग यह कहते हैं की साईं ने हमें यह दिया वह दिया, अथवा साईं दरबार में आने से हमे यह मिला, वह मिला आदि | यह कैसा झूठ हैं मै प्रमाण दे रहा हूँ, और सम्पूर्ण साईं भक्तों को चुनौती दे रहा हूँ  की यह साईं भक्त साईं के दरबार में जाकर खुद को प्रधानमन्त्री बन जाने की तमन्ना साईं से रखदे और साईं उन्हें प्रधानमन्त्री बनादे, तब तो माना जायेगा की हां सत्य है साईं, की इनसे जो मांगे वही मिलता है ?
अगर वह प्रधान मन्त्री नही बना या बन पाया तो बात अपने आप में झूठ सिद्ध हो गया किसी को झूठ सिद्ध करने की ज़रूरत ही नही |
देखता हूँ कौन माई का लाल साईं का चेला आता हैं मैदान में यह मेरी चुनौती है कौन सामना करता है आ जाये मैदान में | दुध का दूध और पानी का पानी अलग हो जायेगा, इसलिए साईं भक्तों, परमात्मा के साथ खिलवाड़ न करो, जानो पहले परमात्मा कौन है ?
परमात्मा को बिना जाने परमात्मा का पाया जाना संभव नही, हमारे सभी ऋषि मुनियों ने कहा योग साधन के बिना परमात्मा को पाया जाना संभव ही नही | इसलिए मै सत्य सनातन वैदिक धर्म के मानने वालों से यही प्रार्थना करूंगा की छोड़ो यह साईं का चक्कर, न वह महात्मा थे और न ही संत –कारण परमात्मा को मांसाहार करने वाले कभी भी उसका सानिधय नहीं पा सकता | यही ऋषि पतंजली का फरमान है पढ़ो योग दर्शन | महेन्द्रपाल आर्य –वैदिक प्रवक्ता = 23 /12/22

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