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धर्म को लोगों ने दूकान समझ लिया है |

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|| धर्म को लोगों ने दुकान समझा ||

धर्म शब्द सुनते ही आत्मा में एक हलचल पैदा हो जाता है, और मानव सोचने लगता है कहीं अधर्म ना हो जाय | धर्म एक ऐसा विषय है जो आत्मा से सीधा सम्बन्ध रखता है, जरा भी कोई गलत काम हो जाय किसी भी मानव से, वह मानव किसी भी कौम का हो उसके गलत कार्य करने पर अथवा कोई गलत कार्य हो जाने पर फौरन आत्मा की आवाज़ आती है, जिसमें भय, लज्जा, और शंका, तीनों उत्पन्न होता है | यही भय,लज्जा, और शंका, उत्पन्न होने का नाम धर्म है, जिससे मानव कहलाने वाले अधर्म से बचें | यही तीनों बातें मानवों में उत्पन्न कराने वाले का नाम परमात्मा है |

 

इससे यह बातें भी स्पष्ट है की धर्म मानव मात्र के लिए है,और परमात्मा मानव मात्र का है, जिसके पास हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई बिलकुल नहीं | धरती पर यही हिन्दू मुस्लिम के नाम से मानव समाज में भेदभाव पैदा करने वालों ने धर्म को दुकान समझा है |

 

धर्म जो परमात्मा के बनाये नियमों के अनुसार सम्पूर्ण मानव समाज का एकत्रीकरण है अथवा इकाई है उसे धर्म के नाम से मानवों को बाँट दिया है, और एक दुसरे के जानी दुश्मन भी बना दिए गये | जी आज सम्पूर्ण विश्व भरमें धर्म के नाम से विशेष कर इस्लाम वाले यह नहीं चाहते और किसी कौम के लोग रहें धरती पर ? बल्कि सम्पूर्ण विश्व एक ही अल्लाह का दींन हो जाये इस्लाम की लड़ाई यही है | इस्लाम को यह विचार देने वाले अल्लाह स्वंम है जिस अल्लाह को जगत का मालिक कहा है इस्लाम ने |

 

अब प्रश्न है की अल्लाह अगर जगत का मालिक है, और अल्लाह को केवल इस्लाम प्यारा है, तो धरती पर औरों को बनाने वाला कौन है ? अल्लाह को अगर मुसलमानों से प्यार है एक ही दीन ही चाहते हैं अल्लाह, तो अल्लाह सब को मुस्लमान बनाकर ही क्यों नहीं भेजा ? क्या अल्लाह यह देखना चाहते हैं की मुस्लिम और गैर मुस्लिम आपस में लड़े और अल्लाह ने ही मुसलमानों को हुक्म दिया की जब तक सम्पूर्ण जगत में एक अल्लाह का दीन ना हो जाय तो इस्लाम जब तब स्वीकार न करे उनसे लड़ो | अगर वह नमाज कायेम करे जकात देने लगे उस समय तक उन्हें मारते जाव |

وَوَصَّىٰ بِهَا إِبْرَاهِيمُ بَنِيهِ وَيَعْقُوبُ يَا بَنِيَّ إِنَّ اللَّهَ اصْطَفَىٰ لَكُمُ الدِّينَ فَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسْلِمُونَ [٢:١٣٢]

और इसी तरीके क़ी इबराहीम ने अपनी औलाद से वसीयत की और याकूब ने (भी) कि ऐ फरज़न्दों खुदा ने तुम्हारे वास्ते इस दीन (इस्लाम) को पसन्द फरमाया है पस तुम हरगिज़ न मरना मगर मुसलमान ही होकर | सूरा बकर =आयत -132 देखें

अल्लाह को इस्लाम पसंद है, तुम मरो तो मुसलमान हो कर मरो, गैर मुस्लिम हो कर मत मरना |

وَاقْتُلُوهُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوهُمْ وَأَخْرِجُوهُم مِّنْ حَيْثُ أَخْرَجُوكُمْ ۚ وَالْفِتْنَةُ أَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ ۚ وَلَا تُقَاتِلُوهُمْ عِندَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ حَتَّىٰ يُقَاتِلُوكُمْ فِيهِ ۖ فَإِن قَاتَلُوكُمْ فَاقْتُلُوهُمْ ۗ كَذَٰلِكَ جَزَاءُ الْكَافِرِينَ [٢:١٩١]

और तुम उन (मुशरिकों) को जहाँ पाओ मार ही डालो और उन लोगों ने जहाँ (मक्का) से तुम्हें शहर बदर किया है तुम भी उन्हें निकाल बाहर करो और फितना परदाज़ी (शिर्क) खूँरेज़ी से भी बढ़ के है और जब तक वह लोग (कुफ्फ़ार) मस्ज़िद हराम (काबा) के पास तुम से न लडे तुम भी उन से उस जगह न लड़ों पस अगर वह तुम से लड़े तो बेखटके तुम भी उन को क़त्ल करो काफ़िरों की यही सज़ा है | सूरा बकर =191

وَقَاتِلُوهُمْ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتْنَةٌ وَيَكُونَ الدِّينُ لِلَّهِ ۖ فَإِنِ انتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ إِلَّا عَلَى الظَّالِمِينَ [٢:١٩٣]

और उन से लड़े जाओ यहाँ तक कि फ़साद बाक़ी न रहे और सिर्फ ख़ुदा ही का दीन रह जाए फिर अगर वह लोग बाज़ रहे तो उन पर ज्यादती न करो क्योंकि ज़ालिमों के सिवा किसी पर ज्यादती (अच्छी) नहीं | सूरा बकर =193 =

 

जरा गौर से पढ़ें समझ कर पढ़ें मानवों को मानवों से लड़ाया किसने ? मानवों को मानवों के खून का प्यासा कौन बनाया ? इसी उपदेश को इस्लाम वाले पत्थर की लकीर मानते और समझते है |

तो बताएं इसे धर्म कहा जायगा ? और यह उपदेश जिस ग्रन्थ में हों उस ग्रन्थ को ईश्वरीय ग्रन्थ मानना मानव समाज में क्यों और कैसा सम्भव है ? ऐसा ही आनेक प्रमाण है कुरान में |

 

हमारे शास्त्र में बताया गया, जिससे सांसारिक अभुदय और आत्मिक दोनों हो मानव मात्र का उसे धर्म कहा जाता है |  सभी धर्मों का मूल वेद है बताया गया जो मानव मात्र के लिए ज्ञान है | मनु महाराज धर्म के दस लक्षण बताये है, जिसमें ना हिन्दू है और ना किसी मुसलमान की बात कही गई, किसी भी मानव में अगर यह लक्षण दिखाई दे तो वह धार्मिक है | जहाँ किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं है यह सबके लिए है, अब मानव समाज में जो भेद खड़ा करे उसे धर्म कहा जायेगा अथवा जो मानव समाज को जोड़े उसे धर्म कहा जाय गा ?

 

ऋषि पातंजलि ने योग में अपनाये गये, यम, नियम, का पालन को ही धर्म बताया है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य,और अपरिग्रह | और साथ ही साथ, नियमों को दर्शाते हुए कहा है, शौच, स्वाध्याय, तप, सन्तोष, ईश्वरप्रणिधान | इसे अपने जीवन में उतारना मानव मात्र के लिए धर्म है |

 

धर्म मानव जीवन के शास्वत मूल्यों का नाम है, इस संसार में रहकर किस प्रकार श्रेष्ठ जीवन व्यतित किया जाय जिसमें आत्मिक उत्थान हो उसे धर्म कहा गया है |

इस प्रकार हम जब विचार करते हैं तो हमें धर्म अधर्म का पता स्वतःमिलता चला जाता है जो मानव मात्र का चहुमुखी विकास हो, प्राणी मात्र का कल्याण मानव के द्वारा हो जो हिंसा से दूर रहे, सब की उन्नति को अपनी उन्नति समझें | जो मानव जीवन का एक मात्र लक्ष्य है उसे अंजाम देने का ही नाम धर्म है |                                          महेन्द्रपाल आर्य =30 /6 /18 =

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