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|| धर्म क्या है इसपर चर्चा करेंगे ||

Mahender Pal Arya
08 Feb 21
232
|| धर्म क्या है इसपर चर्चा करेंगे ||
मुख्य रूपसे यह शरीरस्थ चेतना जीवात्मा जिसे कहते हैं, इसके अन्तर्गत शारीर की अध्यात्मिक संरचना तथा उसकी कार्य प्रणाली का विवेचन किया गया है | यह जीव चेतना किन्तु विशिष्ट अध्यात्मिक नियमों के अनुसार कार्य कर रही है | इन नियमों को जान लेना ही अध्यात्म ज्ञान है, तथा इनके अनुसार कार्य करना अथवा आचरण करता हुवा मनुष्य अपनी जीवात्मा की उन्नति करता हुवा परमगति को प्राप्त होता है इसी का नाम धर्म है | अतः अध्यात्म और धर्म एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं |
अध्यात्म धर्म का मार्ग निर्देशक है जिसके ज्ञान के बिना, धर्म अन्ध विश्वास एवं पाखण्ड मात्र रह जाता है, तथा वह अपने मार्ग से ही भटक जाता है | धर्म जीवात्मा की अध्यात्मिक उपलब्धि की विधि है |बिना अध्यात्मिक दिशा निर्देशक के धर्म पर चलने वाला बिना.कम्पास के जहाज को समुद्र में छोड़ देने के समान है जिससे वह कभी अपने गन्तव्य तक नहीं पहुंच सकता | धर्म वह विद्या है जिससे मनुष्य इहलौकिक और पारलौकिक,जीवन को सुखी बनाकर स्व –चेतना का विकास करते हुए अंत में वह ईश्वरीय युक्त हो जाता है जो उसकी परम गति है, जिसे हम मोक्ष्य कहते हैं, या परमात्मा जो आन्द स्वरूप है उसी से आनन्द को प्राप्त करने के योग्य बनते हैं | धर्म इसी परम गति को प्राप्त करने की विधिहै,अध्यात्म विज्ञान है तथा धर्म उसकी तकनीक है |
धर्म का जन्म किसी विशेष समय में नहीं किसी व्यक्ति विशेष द्वारा भी नहीं हुवा, धर्म का जन्म सृष्टि रचना के साथ ही हो गया | सृष्टि की रचना भी धर्म के अनुसार ही हुवा, सृष्टि की रचना एवं संचालन जिन नियमों के अनुसार हो रहा है वही उसका धर्म है | बिना धर्म के अथवा नियमों के यह सृष्टि चल ही नहीं सकती | सृष्टि अपने नियमों और गुण धर्मों के अनुसार ही संचालित हो रही है, यह गुण ही उसके धर्म है |
इस प्रकार प्रकृति के गुणों का नाम धर्म है तथा उन्ही गुणों के आधार पर उसकी समस्त क्रियाएं संचालित हो रही है | अध्यात्म ज्ञान एक पक्ष है, तथा धर्म उसका आचरण एबं क्रिया पक्ष है | धर्म पर आचरण करता हुवा मनुष्य अध्यात्मिक ज्ञान को उपलब्ध होता है | इसलिए यह जीवात्मा अपनी उन्नति करता चला जाता है, धर्म के बिना जीवात्मा की उन्नति नहीं हो सकती |
धर्म की जरूरत किसलिए है ?
धर्म मानव मात्र के आत्मिक उन्नति का मार्ग है, मनुष्य को सृष्टि की एक विकास प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है | वह पशु योनी से उपर उठ कर मनुष्य योनी में आया है, किन्तु उसकी यात्रा यही तक समाप्त नहीं हो जाती, इससे आगे भी उसकी यात्रा है, जिस से उसे मानवेत्तर जीवन मिलता है | यही मानव उस समय देवता कहलाता है, देवता कोई आसमान से गिरते नहीं और ना जमींन के अंदर से निकलते है | जो धर्म पर आचरण करते हुए अपने परिधि को पार किया,अथवा इस यात्रा में आगे बढ़ने की विधि जीवात्मा को धर्म ने ही दी है |
मनुष्य शारीर में मन, बुद्धि एबं आत्मा का समुच्य है, शारीर की यात्रा इसी जीवन में शमशान तक जा कर अथवा कब्रस्थान तक जा कर समाप्त हो जाती है, किन्तु मन की यात्रा कई जन्मों तक चलती रहती है | इसलिए शरीरके विकास की अपेक्षा, मन का विकास अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है | शारीर के विकास के लिए जिस प्रकार, भोजन, श्रम, व विश्राम, आदि आवश्यक है | उसी प्रकार मन के विकास के एबं परिष्कृत के लिए धर्म मानव जीवन में हजारो गुना ज्यादा आवश्यक है | धर्म मन की शुद्धि का ही उपाय है, और शुद्ध मन ही उस परम चेतना का अनुभव करता है | यही कारण है की मानव मात्र के लिए धर्म ही एक मात्र उपाय है अथवा मानव मात्र के लिए धर्म की अनिवार्यता इसीलिए है | बिना धर्म के पशु जी लेता हैं, किन्तु धर्म के बिना मानव का जीना संभव नहीं और उचित भी नहीं है | मनुष्य को ही यह वरदान प्राप्त है की वह धर्म का पालन करता हुवा स्व चेतना का उच्चतम स्थिति को प्राप्त करता है | इसीलिए मनुष्य को धर्म की आवश्यकता हुई,अन्य कोई प्रोयोजन नहीं था | शारीर का विकास तो व्यायाम से हो जाता है, बुद्धि का विकास अध्यायन से होता जाता है | किन्तु चेतना का विकास धर्म के बिना संभव ही नहीं है, इसीलिए मानव जीवन में धर्म ही एक मात्र महत्त्वपूर्ण भूमिका में है, दूसरा और कोई नहीं, की मानव को देवता बना दे| धर्म पर आचरण न करने पर यही मानव राक्षस भी कहलाता है |
महेन्द्रपाल आर्य =8 /2 /21