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बुद्धिष्टों का वेद विरुद्ध आचरण का विरोध श्न्कराचार्य का था |

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|| वेद विरोधी बुधिष्टों को खात्मा शंकराचार्य का भी था ||
परम पिरता परमात्मा आदि सृष्टि में ही मानव मात्र को अपना ज्ञान दिया जो वेद के नाम से प्रसिद्ध है और वेद का अर्थ ही ज्ञान है | परमात्मा अपना ज्ञान देने में मानवों के साथ भेद भाव भी नही किया | यथे माम् वाचम् कल्याणी आवदानी | अर्थात यह कल्याणी वाणी मानव मात्र के लिए है | अगर परमात्मा अपना ज्ञान देने में भेद भाव रखते तो परमात्मा पर पक्षपात का आरोप लगता | यही कारण है की मानव जब कभी गलती करता है | और इस कार्य में परमात्मा आर्य-अनार्य, हिन्दू-मुस्लिम, सिख-इसाई, जैन-बौद्ध तथा बहाई के साथ समान रूप से भय, लज्जा, शंका देकर हर बुरे से मानव मात्र को बचाता है,यही गुण होने हेतु वह परमपिता है |
क्यूंकि लोकाचार में देखा जाता है, पिता अपने पुत्र को दु:खी देखना नही चाहता, तो वह संसार का पिता होने हेतु अपने संतानों को पाप कर्मों से बचाता है | किन्तु कालांतर में मानव स्वार्थ के वशीभूत होकर अपनी प्रसिद्धि के लिए स्वयं सिद्ध परमात्मा कहलाया किसी ने, या फिर परमात्मा का एजेंट बताकर किसी ने पैगम्बर कहा अपने को, फिर किसी ने अवतार बताया, या तो उसी परमात्मा को मानने से इनकार किया, और अलग ही धर्म खडा कर लिया या चलाया |
धार्मिक सम्प्रदायों में इस समय हिन्दू, मुसलमान,पारसी यहूदी,इसाई, जैनी बौधिष्ट प्रधान है | शेष जितने मत-मतांतर है सब इन्ही की शाखा, प्रशाखा अथवा मिश्रण है | सही में मनुष्य जाति यदि धर्म, शासन और सामाजिक बंधनों से सीधा संपर्क न रखे या न रख सके तो मानव पतित होकर अनाचार को प्राप्त होता है तथा अनाचारी ही कहलाता है |
जब मानव अपने धर्म और अनाचार को अपना कर्तव्य तथा मोक्ष मानने लग जाते है | तो ऐसी दशा में उत्तम मनुष्य को बिगड़ने में देर नही लगती | उत्तम मनुष्य को बिगाड़ने वाले दुष्ट मनुष्य पहले दिखाने को स्वयं उत्तम बनते है, और फिर धीरे-धीरे अपना दुष्ट स्वाभाव उत्तम मनुष्यों में दाखिल करा देते है, जैसा आज दुनिया में हो रहा है |
नवीन सिद्धांत के प्रचार करने वालों ने हमेशा से इसी रीती को अपनाया है | उनका सिद्धांत है की जिस जाति को अपना सिद्धांत सिखलाना हो तो, उसकी भाषा में ऐसे-ऐसे ग्रन्थ लिखे जायें, जिनमे तीन बातों का समीश्रण हो | पहली बात यह हो की उस जाति के जो सिद्धांत अपने प्रचार में बाधक न हों | वह सब मान लिए जायें, उनकी प्रशंसा की जाये, और विस्तार से उनका वर्णन किया जाये | दूसरी बात यह हो कि उस धर्म की सूक्ष्म बातें जो सर्व साधारण की समझ में न आती हों, उनका अभिप्राय बदलकर उसमे अपने मत की आवश्यक बातें मिश्रण करके गूढ़ भाषा में वर्णित की जाये | और तीसरी बात यह हो की साधारण बातों का खंडन करके उनके स्थान पर अपनी उन समस्त मनमानी या मन घडन्त बातों को भर दिया जाये | इस प्रकार का बंदोबस्त करने पर एक जाति दूसरी जाति में अपने सिद्धांतों का प्रचार कर सकती है |
आर्यों के दार्शनिक विषयों को देखने तथा अवलोकन से भली-भांति पता चलजाता है | उन अनार्य विचारों में जो विचार दर्शन शास्त्र से सम्बन्ध रखती है वही आसुर उपनिषद कहलायें जैसा असुराणां ह्येषा उपनिषद | अर्थात यह असुरों का उपनिषद है |
इससे यह स्पष्ट है की उपनिषदों में आसुर उपनिषद का समावेश है | और ये मात्र उपनिषदों में ही नही अपितु गीता, मनुस्मृति ब्रह्मसूत्रों में भी उन चाटुकारों ने मिश्रित कर दिया है | या तो यूँ कहिये, उपनिषद वेदांत दर्शन और गीता जिन्हें प्रस्थानत्रयी कहा जाता है,कुछ अंशों में आसुरी विचारों से भरे हुए है |
और यह प्रस्थानत्रयी नाम बौद्धों के त्रिपिटक नाम की नक़ल है | जैसा की बौद्धों ने तीन प्रकार के साहित्यों को त्रिपिटक कहा जाता है | उसी प्रकार वेदान्त से सम्बन्ध रखने वाले तीन प्रकार के साहित्य को प्रस्थानत्रयी कहते है, जिस प्रकार आसुर धर्म को हटाने के लिए त्रिपिटक की योजना हुई थी | उसी प्रकार आसुर धर्म को पुन: प्रतिष्ठा के लिए प्रस्थानत्रयी की योजना हुई है | त्रिपिटक बौद्ध साहित्य है पर वह साहित्य जिस प्राचीन साहित्य के आधार पर तैयार हुआ है वह चारवाक का बाहर्यस्पत्य है,आसुरी आचार का सबसे प्रथम खंडन करने वाला चारवाक है |
पशुश्चेन्निहति: स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति, स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्य्ते ||
अर्थात यदि यज्ञ में मारा गया पशु स्वर्ग को जाता है तो यजमान अपने पिता को मारकर स्वर्ग को क्यों नही भेजा जाता (सत्यार्थ प्रकाश) | बृहस्पति का कहना है, मांसानां खादनं तद्वन्निशाचार समीरितं | अर्थात वेदों में मांसाहार निशाचरों का मिलाया हुआ है | इसलिए वह कहते है, त्रयो वेदस्य कार्तारो भंड धूर्त निशाचरः | अर्थात उपयुक्त प्रकार के मांस मद्य विधानयुक्त तीनो वेदों का नाम धूर्त और निशाचरों के बनाये हुए है |
चारवाक ने मात्र कहा ही नही, अपितु वेदों के नाम से लीला बताने वालों का विरोध करते हुए उन लोगों से अलग होकर अपना अलग एक मत ही खड़ा क्र दिया | जिसके द्वारा आसुर धर्म का खंडन होता है | इस सम्प्रदाय के उपदेशों ने बौद्ध तथा जैन मतों को आगे बढ़ने दिया | इससे समस्त भारत में बौद्ध मत फ़ैल गया | इस बीच जो कुछ साहित्य तैयार हुआ उसे तीन हिस्सों में बांटा गया | और उसी का नाम त्रिपिटक रखा गया | एक गोष्ठी और भी है जो आसुर धर्म का फिर से प्रचार करना चाहती थी | इसी गोष्ठी का मूल प्रचारक का नाम बादरायण | उसी के वंश परंपरा में आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था | आगे चलकर इसे परंपरागत अवसरवादियों ने उपनिषद आदि ग्रंथों में मिलावट की |
अब शंकराचार्य को प्रचार हेतु यही मिश्रित साहित्य मिला उनके प्रचार से प्रभावित होकर कई राजाओं ने बौद्ध को नष्ट कर दिया | माधवाचार्य कृतशंकर दिग्विजय ने लिखा है, कि उस काल में राजाओं का हुक्म था कि हिमालय से लेकर समुद्र पर्यन्त बसे हुए आवल वृद्ध बौद्धों को जी न मारे वह मृत्यु दंड के योग्य है |
इस सख्ती का फल यह हुआ की भारत वर्ष में बौद्धों की कमी हो गई | इस प्रचार में सुविधा उत्पन्न करने के लिए शंकराचार्य के पूर्व रचित साहित्य के तीनो भागों का भाष्य कर दिया | अतः उक्त भाषा-उपनिषद ब्रह्म सूत्र व गीता ही प्रस्थानत्रयी के नाम से प्रसिद्ध हो गया | यदि वेदों का कोई विरोधी है और आर्य सभ्यता का कोई नाश करने वाला है तो तथा आसुरी भाव को फैला कर जाति का पतन करने वाला है, तो यही प्रस्थानत्रयी नमी मिश्रण भाष्य ही है |
और आज इसी की आढ़ में देशभर अनेकों संप्रदाय अनाचार तथा भ्रम फैला है | आज एक श्रुति स्मृति और दर्शन आदि गंभीर शब्दों से प्रभावित होकर असली वृत्तान्त को जानते हुए भी किसी ने इसं ग्रंथों के प्रति कलम नही उठाई | एक ऋषि दयानंद को छोड़कर, सबने अर्थ बदल-बदल अपनी बातों को सिद्ध करने का मिथ्या प्रयास किया है |
यही कारण बना मुगलकाल में मुसलमानों ने हिन्दुओं को नोटों के बल से अल्लोपनिषद आदि ग्रंथों को लिखवाया |
ऋषि दयानंद ने भली-भांति इन सबका अवलोकन किया तथा मानव मात्र को ईश्वर प्रदत्त वेदों की ओर तथा ऋषि-मुनि कृत ग्रंथों की ओर ले जाना चाहा | जिन्हें लोग अब तक छोड़ चुके थे | या फिर वह छुटकार जो मानव समाज को सत्य से असत्य की ओर व प्रकाश से अंधकार की ओर ले चले थे | सही पूछिए तो आर्य समाज नामी संस्था बनाने का उद्देश्य ऋषि दयानन्द का यही था, भारत भ्रमण कर दयानन्द ने भली प्रकार से देखा विशेषकर 1872 में जब दयानन्द बंगाल पहुंचे तो राजा महाराजों से मिले तथा लोगों को असलियत बताने का पप्रयत्न किया | परन्तु स्वार्थ में दुबे लोगों ने दयानन्द के विरोध में भी जुलुस निकालें | एक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ही स्वामी जी के पक्षधर बने,और कहा स्वामी जी अलग संगठन बनाकर ही हमे काम करना चाहिए | ऋषि दयानन्द ने आर्ष ग्रंथों में या वैदिक ग्रंथों में जिस प्रकार स्वार्थी लोगों द्वारा मिलावट की बात कही, ठीक उसी प्रकार धरती पर चल रहे सभी मत-मतांतरों को गुरुडमवाद तथा पाखंडियों की जाल साजी को भी दर्शया | यहाँ तक की कुरान, पुराण, बाईबिल, दादूपंथ और नानकपंथों के बारे में भी प्रकाश डाला | और मानव समाज को वेद रूपी धागे में पिरों कर संसार का उपकार चाहते हुए 1875 में आर्य समाज नामी संस्था को कायम किया |
ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज बनाकर आर्य जनों को कर्तव्य दर्शाया, और वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है कहकर पढ़ना=पढ़ाना सुनना-और सुनाना परम धर्म लिखा है | यहाँ तक की अपनी उन्नति से संतुष्ट न रहकर सबकी की उन्नति को अपनी उन्नति समझना चाहिए लिखा, साथ ही आर्य जनों को उपदेश दिया | सामाजिक सर्वहितकारी नियम में सब परतंत्र रहें, और प्रत्येक हितकारी नियम में स्वतंत्र रहने को लिखा | इधर आर्य समाज में इसका सारा उल्टा ही आचरण हो रहा है, यह मानें कि दयानंद का गला घोटा जा रहा है आदि |
आज आर्य समाज के मंच से मत-मतान्तरों पर प्रकाश डालने हेतु विद्वानों को मना कर दिया जाता है | कहीं आर्यजनों के गुरुकुलों में अल्लाहु अकबर के नारे गुंजमान किए जा रहे है, और कही आर्ष ग्रंथों को पढ़ने का विरोध किया जा रहा है | स्वामी चेतनानन्द द्वारा वेदालोक संस्कार दर्पण में आर्ष ग्रंथों का विरोध लिखा, दयानन्द जी ने जिस आर्ष ग्रन्थ का प्रतिपादन किया | और यही स्वामी चेतनानन्द को आर्य प्रतिनिधि सभा बंगाल का अधिकारी बना रखा था आनंद कुमार ने, जो सन्यासी अग्निवेश से भी ख़तरनाक है और ऋषि दयानन्द के विरोधी है |
दयानन्द को एक रजा ने कहा महाराज आप अगर देवी पूजा का विरोध न करें तो मै अपने राजपाठ का आधा हिस्सा आपके नाम कर दूंगा, जवाब में स्वामी जी ने कहा इसे तो मै सास रोककर पार कर जाऊंगा | राजा ने कहा देखना इतना बड़ा दानी आपको नहीं मिलेगा | स्वामी जी ने कहा ऐराजंन आप को इतना बड़ा त्यागी भी नहीं मिलेगा |
आज उसी दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाजी का मुखौटा लगाकर कही संस्था की जमीन बेच रहे है, तो कोई समाज तथा सभा में कब्जा जमा बैठे है | कहीं महिलाओं के सिर पर कलश रखकर जुलुस निकाल रहें है, और कहीं शव पर माला चढ़ा रहे है, तो कहीं दाह संस्कार के बाद नंगा होकर फुल बहा रहे है, तथा कोई मर जाने पर तेहरवी मना रहे है, या अपना सिर मुड़वा कर घूम रहे है | और अपने को आर्य समाजी तथा आर्य नेता कहलवाने में आतुर है | इन्ही पाखंडों से बचने हेतु ऋषि ने आर्य समाज की स्थापना की था |
नोट :- उड़ीसा में स्वामी धरमानंद जी ने महिलाओं के सिर पर कलश रखवाकर जुलुस निकाले थे बाकि प्रमाण सुरक्षित है |
बिजनौर दारानगर गुरुकुल में अल्लाहु अकबर का नारा तो स्वामी इन्द्रवेश जी के सामने लगाया था |
आज रामदेव द्वारा व अग्निवेश द्वारा प्रचार ‘कुरान भी वेद जैसा धर्मग्रन्थ है’ , कहा जा रहा है, जबकि ऋषि दयानंद ने सभी मजहबी ग्रंथों को मानव कृत होने का अनेक प्रमाण प्रस्तुत किया है |
मैं पहले भी कुरान ईश्वरीय न होने का अनेक प्रमाण कुरान से ही सिद्ध कर चुका हूँ |
महेन्द्रपाल आर्य = यह लेख 2006 में ऋषि सिधान्त मासिक पत्रिका में मेरा सम्पादकीय लेख था | आज मस्जिद से यज्ञ शाला की ओर पुस्तक से उठाकर दिया हूँ | धन्यवाद

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