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हम मानव कहलाने वालों ने मानवता पर अमल किया ?

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हम मानव कहलाने वालों ने मानवता पर अमल किया ?

यह एक बोहुत बड़ा प्रश्न आज मानव समाज के सामने खड़ा है,की मानव कहलानेऔर मानव बनने में कुछ भेद है या नहीं इसे हमने जानने का प्रयास ही नहीं किया |

आज तो दुनिया में मानव उसे कहा जाता है शकल सूरत से कपड़ों से.यानि हाथ,पांव, आँख,कान, पूरा एक ढांचा हो, और वह खूब अच्छे कपड़े पहने हों, तो लोग उसे मानव कहते हैं |

 

पर हकीकत यह नहीं है, मानव ही एक ऐसा प्राणी हैं की जिसका संपर्क और सम्बन्ध सीधा परमात्मा से है, कारण यह मानव ही है जो परमात्मा का अमृत पुत्र कहलाया | यह सौभाग्य अन्य और किसी भी प्राणी को उस परमात्मा का संतान नहीं कहा गया |

 

इसका कारण, है.मानव ज्ञानवाण है, कर्म शील है,पाप और पुन्यको जानने वाला है,सही और गलत का निर्णायक भी है, अच्छे, और बुरे का ज्ञान रखने वाला है, यह गुण और किसी भी प्राणी में नहीं एक मानव को छोड़ कर |

मानव नाम होने का कारण भी यही है, अब अगर हम मानव कहला कर यदि अपने गुणों को छोड़ें तो क्या हम मानव कहला सकते है ? यानि जो मानबीय गुण होने के कारण हमारा नाम मानव पड़ा,उन गुणों को अगर हम छोड़ दें, तो क्या हम मानव कहलाने के हक़दार होंगे ? सीधी सपाटा जवाब मिलेगा नहीं |

 

कारण हम मानव ही इसका निर्णय करते हैं, की जब अग्नि अपने गुणों को छोड़देती है, यानि जलना जलाना,गर्मी को देना जो अग्नि का गुण है और उसे छोड़ दिया तो हम मानव ही उसे राख कहते हैं, ठीक पानी भी शीतलता को देना,बहना छोड़ दे, यानि अपने गुणों को छोड़ दे उसे भी पानी नहीं कहते, पर हम अपने लिए यह नहीं सोचते की हमारा जो मानबीय गुण है उसे छोड़ दें फिर भी हम अपने को मानव ही कहते और कहलाते हैं | सही में यह सोचने और समझ ने वाली बात है |

 

अब मानवता क्या है हमें जानना पड़ेगा. मानव धर्म में यह उपदेश है, आत्मवत सर्व भूतेषु | यानि समस्त आत्माओं को अपनी आत्मा के समान जान ना, फिरकहा.आत्मानाम प्रति कूलानी परेशंन समाचरेत, यानि अपनी आत्मा को जो अच्छी न लगे वह व्यवहार औरों से न करना, इसको मानवता कहते हैं |

अगर यही मानवता है क्या हम मानव कहलाने वाले इसपर अमल कर रहे हैं ? नहीं हम इस पर अमल न करते हुए भी अपने को मानव ही कहते और कहलवाते हैं | इधर हम मानव कहलाने वाले ने ही, अग्नि का गुण जब छोड़ दे तो उसको हम राख कहने लगते हैं, किन्तु जो गुण हम मनबों का है उसेछोड़ कर.भी हम मानव कहलाते.हैं | यह है अफ़सोस की बात, मानव हो कर भी जो इसपर विचार नहीं करते तो क्या वह मानवता पर कुठाराघात नहीं है ? आज अगर देखा जाय तो. नगर.बस्ती.गावों शहरमें तथा खलिहानों में मात्र अभाव है तो इसी विचारों के अभाव है |

 

कारण हम जहाँ कहीं भी जाते हैं.मानव केवल अपने स्वार्थ की बात करते हैं. अपने को छोड़ औरोंके लिए कोई सोचना ही नहीं चाहता | परन्तु मानव को धर्म उपदेश दिया गया. केव्लाद्यो भवति केव्लादी | यानि जो अकेला खाता है वह पाप खाता है |

 

अनेकों महा पुरषों ने कहा संसार का उपकार करना मानव समाज का मुख्य उद्देश्य है, अपनी उन्नति में संतुष्ट नहीं किन्तु दूसरों के उन्नति में अपनी उन्नति लिखा है | रही बात मानवता की, तो आज हम सम्पूर्ण धरती पर विचरण कर, देखते हैं की यही मानव कहलाने वाले अपने खून को खून, और दुसरे के खून को पानी समझने लगे हैं |

एक परिवार से लेकर, चारों आश्रमों में. ब्रह्मचारी,गृहस्ती, वानपरस्ती,और सन्यासी ही क्यों न हों. या फिर सामान्य व्यक्ति से राजनेता तक, और एक साधारण परिवार से लेकर राज परिवार तक मात्र अपने स्वार्थ में ही लग कर भारत जैसा महान देशको भी दावों पर लगा दिया |

 

यह दशा आज की ही नहीं, अपितु महाभारत में भी यही दिखाया व सुनाया गया,चालबाजी से पहले तो जुवा खेला. और दावों पर दावों लगाते गये,यहाँ तक की घर के कुल बधू को भी दावों पर लगा दिया तथा सुई के नोक के बराबर जमीन देने को तैयार नहीं हुए, यही तक ही नहीं मानवता के आधार पर विचारें, की जब हमसे कोई छीने तो, ज़रूर हमें अच्छा नहीं लगेगा |

 

तो हमें भी दूसरों का छीनना नहीं चाहिए | किन्तु औरंगजेब.ने सम्पत्ति को पाने के लिए अपने भाई दारा की हत्या की,और पिता को भी बंदी बनाया था | मानव धर्म का उपदेश है मागृध: कस्य सिद्धनम | अर्थात, दुसरे का धनकी लालच मत कर,यह धन किसका है ?

 

मानव धर्म में यही कहा गया परद्रव्य्शु लोष्टवत्, यानि दुसरे के धन को मिटटी के ढेला के समान जान | यह है मानवता,आज अगर अभाव है तो इसी चीज का ही अभाव है, धार्मिक , सामाजिक,और रानीतिक, हर जगह यही धनकी लालच ने तो लोगों के प्राण लेने में भी संकोच नहीं किया और न कर रहे हैं |

 

यही लोभ और लालच ने तो,कई राजनेतावों के मृत्यु को भी रहस्यमय बनाकर रखा है,और राजनीति दांव पेंच में कहीं लोक सभा में बोराभर कर नोट ले जाया गया. यानि मानवता को ताक पर रखते हुए नेतायों की खरीद फरोख्त होने लगी | और कही यह नेता गण जीते जी अपनी मूर्ति जनता के पैसों से लगाने लगे,और कही पत्थरों की हाथी बनाकर जनता की पैसों को बर्बाद करने लगे | न मलूम इसमें भलाई देशकी है,जनता की है या फिर मानवता की भलाई ? इसमें कुछ जन कल्याण की बातें नज़र आती हो तो बताएं ? सिर्फ अपनी स्वार्थ के लिए मानवता को भी दाव पर लगा दिया गया |

कहाँ धरा रहगया वह मानवता का उपदेश आत्मानंप्रतिकूलानी परेषाम न समाचरेत ?

मात्र इतनाही नहीं आज यही नेता गण अपने स्वार्थ के लिए देश में महंगाई पर किसी का ध्यान ही नहीं, अपना धन तो दुसरे देश के बैंक में जमा कर रखा है, और देशके धन को खर्च किया जा रहा मिटटी खोदकर सोना खोजने में |

कुछ नेता हमारे ऐसे भी हैं जो पशुवों के खुराक खाने में भी संकोच नहीं किया.जेल का हवा खा कर भी रुकते नहीं है | इसी बात को आप सामाजिकता में देखें,यानि मानवों के समूह को समाज कहा जाता है |

इसी समाज में ही आपस में छिना झपटी से ही लोगों को फुर्सत नहीं लोग यह कहते है की जो मेरा है वह तो मेरा ही है,जो तुम्हारा है वह भी मेरा है | कुछ लोगों ने इसे रोक कर बोला नहीं,जो मेरा है वह तो मेरा ही है, अगर जरुरत से ज्यादा तुम्हारे पास है.वह मेरा है |  जिसको लोग मार्क्सवाद, कोम्युनिजमवाद, लेलिनवाद, और सेकुलर बाद के नाम से पुकार रहे हैं |

 

विचार णीय बात है की जरुरत से ज्यादा किसी के पास हो और आपको उसका धन चाहिए, तो क्या यह लोभ और लालच नहीं और वह आप को बिना लड़े दे सकता है ? कदापि नहीं देगा तो लड़ाई यहाँ भी वही है जो दुसरे का धनको अपना समझा | तो क्या इसको आप मानवता कहेंगे, नहीं यह.भी मानवता नहीं. इसी का ही नाम छिना झपटी है |

तो क्या यह मानव का काम है.कदापि नहीं.बल्कि मानवता तो वही है जो संसार का उपकार करने का उपदेश बताया गया,अपनी उन्नति में संतुष्ट रहना नहीं कहा सबकी उन्नति को अपनी उन्नति बताया गया | मानवता तो यही है की जो दुसरे का है वह तो दुसरोका ही है, जो अपने पास है उसे दूसरों के लिए समर्पण करना ही तो मानवता है |

एक तरफ तो हम उसी परमात्मा के सन्तान कहलाते हैं अपने को, और उसके गुणों को धारण नहीं करना चाहते,तो क्या हम उसके संतान कहलाने लायेक हैं ?  अब जो लोग उसको नहीं मानते, या उसका संतान नहीं मानते, जैसा.जैनी,बौद्ध. कोम्युनिस्ट,इस्लाम अदि, तो उन्हें भी इसपर विचार करना चाहिए की,पिता पालनहार को कहाजाता है,परमात्मा के सिवा दुनिया का पालने वाला और कौन है भला ?

मै ऊपर बताया हूँ की वह मानव कहलाने के हक़दार नहीं होंगे,जो  बनाने वाले के बिना किसी चीज का बनना संभव नहीं, जो बनाने वाला है वही पालने वाला भी है इस कारण वह पिता है, तो उस पालनहार के पालने में भी समानता है, बिना भेद भाव के सबको समान रूपसे अपनी बनाई वस्तु अथवा प्राणी मात्र के उपयोगी वस्तु किसी को किसे से वंचित नहीं किया |

और उसकी छोटी सी कलाकारी को देखें, की सम्पूर्ण धरती पर इतने मानव बसते हैं किसी का अन्गोठा किसे के साथ मेल नहीं खाता ,समुन्दर और गंगा एक साथ जा कर मिला है दोनो का पानी के गुण अलग है,सूर्य,चन्द्रमा दोनों साथ रहते आपस में कभी नहीं झगड़े क्या यह देख कर भी हम मानव कहलाने वाले नहीं सीख सकते ?

जब सिखने और जान ने का नाम मानव है गुण को धारण करने का नामवता है | यह सब तिलांजली देकर भी हम अपने को मानव ही कहला रहे, जबकि अपनी बनाये वस्तु अपना गुण छोड़े तो उसे हम फेंक देते है हमारे घर पर ऐसी बोहुत सी चीजें हैं जो रोज मर्रा के काम की हैं, जब वह अपना काम बन्द करदेता है, तो लोग उसे फेंक देते हैं गिरा देते हैं |

किन्तु हम खुद जब अपना गुण को छोड़ देते हैं इसके बाद भी हम मानव कहलाने को आतुर हैं, और अगर हमें कोई टोके तो हम किसी की बात सुनने को भी तैयार नहीं,यह कौन सी मानवता है ? काश अगर हम मानव कहला ने वाले गुण को पहचान ते और उसे धारण कर धरती पर जीना सीखते तो यह धरती आज मानवों के खून से न रंग कर स्वर्ग बनगया होता | तो आयें हम मानव धर्म को अपना कर मानवता के गुणों को धारण करें और इस धरती को स्वर्ग बनाने में अपना योगदान दें | पंडित महेन्द्र पाल आर्य =

 

 

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