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श्राद्ध तर्पण से मुक्ति, या नहाने से मुक्ति ?

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श्राद्ध तर्पण से मुक्ति, या  नहाने से मुक्ति ?
|| दुष्कर्म निवारण व पाप मोचन का रक्षा कवच आर्यों की मुख्य पत्रिका सार्वदेशिक ||
पिछले दिनों 10 अगस्त 2003 के अंकों में सार्वदेशिक पत्रिका पृष्ठ 7 पर बड़े अक्षरों में लिखा उन दिनों वैदिक सार्वदेशिक का जन्म नहीं हुवा था | लेख का शीर्षक था दुष्कर्म के प्रायश्चित का पर्व है श्रावणी, पर्व | लेखक का नाम श्री प्रो. वाचस्पति उपाध्याय कुलपति लाल बहादुर शास्त्री, संस्कृत विद्यापीठ | लेखक महोदय ने पूरा जोर दिया है और लिखा है, श्रवण पूर्णिमा की प्रात: को स्नान आदि कृति करें, यह आत्मा शोधन का पुण्य पर्व है | सावधानी के साथ रहने वाले व्यक्तियों से भी प्रमादवश कुछ न कुछ भूल हो जाती है, इन दोषों को दूर करने और पापा से मुक्ति के लिए ही श्रावणी का संकल्प कर्मकांड का सबसे बड़ा संकल्प है |
लेखक महोदय ने अपने लेख से यह सिद्ध किया कि, पाप से मुक्ति पाई जा सकती है, बिना भोगे ही, स्नानादि के द्वारा |जबकि वैदिक सिद्धांतानुसार बिना भोगे पाप क्षमा नही होता, अर्थात पाप का फल अवश्य ही भोगना पड़ेगा |‘अवश्यमेव भोगतव्यं कृतं कर्मं शुभाशुभम्’ शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ेगा | अगर वैदिक मान्यता है कि पाप स्नानादि कृतों से क्षमा हो जाती है तो पौराणिकों के गंगा स्नान, कुंभ स्नानादि का विरोध कार्य आर्य समाज के संस्थापक ऋषि दयानंद ने क्यों और कैसे किया ?
लेखक ने यहाँ तक लिखा है की ज्ञात-अज्ञात अनेक पापों का नामोल्लेख कर उनसे मुक्ति पाने की कामना की गई है | आर्यजनों का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आर्य समाज जन्मकाल से अबतक ‘पाप से बिना भोगे मुक्ति नही होती’ का प्रचार तकरीर व तहरीर से करते आ रहे थे और आर्य विद्वानों का शास्त्रार्थ होता रहा पौराणिकों से, ईसाई तथा इस्लाम जगत के आलिमों से भी | मात्र इतना ही नही आर्य जगत के शिरोमणि विद्वान् शास्त्रार्थ महारथी उसकाल के उपाध्याय स्व. श्री गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने अपनी पुस्तक उर्दू फलसफ़ा आयमाल (हिंदी कर्मफल सिद्धांत) नामी पुस्तक में भी इस विषय का स्पष्टीकरण दिया है और आर्य जनों को बताया है कि पाप करोगे तो भोगना पड़ेगा | परमात्मा पाप क्षमा करके तुम पर दया नही करते, अपितु सजा देकर तुम पर दया करते है |
 
क्यों कि अगर परमात्मा पाप को क्षमा कर देंगे, तो दूसरा पाप का अवसर मिल जायेगा और अगर परमात्मा सजा दें, तो जीवात्मा पुन: उस पाप को नही करेगा | अर्थात परमात्मा की दया जीवात्मा के पाप क्षमा करके नही अपितु सजा देकर जीवात्मा पर दया करते है, कि मेरे संतानों से पुन: पाप न हो,यानी दुबारा पाप न होने से बचाकर परमात्मा जीवात्मा पर दया करते है | अगर परमात्मा अपनी संतानों को दंड न दे तो जीवात्मा की उन्नति रुक जाएगी,जीवात्मा की उन्नति तब है जब परमात्मा क्षमा करदे तो परमात्मा न्यायकारी नही हो सकते |
 
एक बात मैं श्री प्रो. वाचस्पति जी से पूछना चाहूँगा कि स्व. उपाध्याय जी ने तो साफ़ लिखा है पाप क्षमा नही होते और आपकी मान्यता है की स्नानादि कर्मों से पाप क्षमा हो जाते है, तो महोदय को यह भी लिखना चाहिए था की कौन-कौन‌‌ से पाप स्नानादि से क्षमा होते है, उनका भी उल्लेख करते | जिससे जनता-जनार्दनों का बड़ा उपकार होता आसानी से दुनिया पाप मुक्त हो जाते |
आर्य समाज के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द जी ने अपनी पुस्तक पञ्चमहायज्ञ विधि के प्रथम पृष्ठ में मनु के श्लोक 109 का प्रमाण देकर लिखा –
“ अदि्भर्गात्राणि शुध्यन्ति मन: सत्येन शुध्यति |
विद्या त्पोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति” ||
अध्याय 5 श्लोक 109 स्नानादि से शरीर की शुद्धि, मन की शुद्धि, सत्य से जीवात्मा शुद्ध होता है, विद्या तप से और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है |
ऋषि दयानंद ने भी माना है की नहाने से तथा स्नानादि कर्मों से शरीर का मैल धुलता है पाप नही | आर्यजनों के लिए परेशानी है कि ऋषि की शिरोमणि संस्था की मुख्य पत्रिका आज प्रचार कर रही है स्नानादि कर्मों से पाप मुक्त होते है | लग रहा है सार्वदेशिक सभा अधिकारीयों ने मानव समाज को पाप से मुक्ति दिलाने का ठेका ले लिया हो | लेखक तथा लेख के प्रकाशक को शायद यह भी मालूम नही कि बेशक आप पाप से स्नानादि द्वारा मानव समाज को भले ही मुक्ति दिलाना चाहते हों, परन्तु कुरान, बाईबिल वाले गंगा नहाना ही पाप समझते है | उन लोगों की मान्यता में पाप से मुक्त होने का तरीका अलग-अलग है, ईसाई बपतिस्मा लेने पर तथा बैतूल मुक़द्दस का परिक्रमा करने पर पाप से मुक्ति मिलती है मानते है |
और मुसलमान, अल्लाह तथा रसूलों पर विश्वास, कुरान व तौरैत, जबूर और इंजील पर विश्वास, आखिरत के दिन पर तथा अच्छे-बुरे की किस्मत को अल्लाह ने बनाया और कयामत के दिन सबको एक साथ हिसाब-किताब के लिए उठना, जन्नत व जहन्नुम में जाना, मक्का-मदीना पा परिक्रमा संग असवद का बोसा लेना, शैतान को कंकड़ मारना, सफ़ा-मरवा पहाड़ पर दौड़ लगाकर पाप से मुक्त समझते है | मेरा प्रश्न होगा आप जैसे मुक्तिदासताओं से आप लोगों में किनका कहना सही है ? ईसाई, मुसलमानों का या फिर आप लोगों का ? आप लोगों में से असली मुक्तिदाता कौन है ? जबकि एक दुसरे के विरोधी भी है आप सभी |
मनु महाराज ने स्नान से शरीर की शुद्धि लिखा है परन्तु माननीय पांडा जि ने लिखा कि श्रावणी पूर्णिमा पर मिट्टी, गोबर, पंचगव्य, अपामार्ग, कुशयुक्त जल आदि द्वारा स्नान करने पर पाप से मुक्ति पाने का साधन माना है | श्री उपाध्याय जि नामी पांडा ने आगे लिखा, जल के समने खड़े होकर भगवान सूर्य की स्तुति करते हुए जल से प्रार्थना की जाती है |
आर्यजन लेखक व प्रकाशक महोदय से यह पूछें कि ऋषि दयानंद जी ने एक परमात्मा को छोड़ और किसकी स्तुति करने को लिखा है ? तथा जल से प्रार्थना करने का क्या अभिप्राय है ? जल जड़ है या चेतन ? प्रार्थना चेतन से की जाती है या जड़ से ? लेखक ने और भी लिखा है | यह रक्षा सूत्र समस्त रोगों को दूर करता व समस्त विघ्नों को नष्ट करने वाला है, यह रक्षा सूत्र पुरे एक वर्ष तक सभी रोगों और व्याधियों से सुरक्षित रखता है |
अर्थात रक्षाबन्धन, श्रावणी उपाकर्म दोनों कार्य एक साथ सम्बद्ध है | लेखक से कोई यह पूछे, रक्षाबन्धन अगर सभी रोगों का निदान सूत्र है तो इतने वर्षों से हिन्दू मनाते आ रहे है फिर यह हिन्दू लोग ग्रस्त क्यों और कैसे ? भले ही हमारे महापात्र जी औरों को रोगी न माने पर भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल जी को अभी-अभी दोनों घुटने बदलने पड़े या नही ?
श्री अटल जी इतने वर्षों से रक्षाबंधन मनाते रहे फिर भी उन्हें रोग ग्रस्त क्यों होना पड़ा ? दूसरी बात है कि रक्षा सूत्र अगर निरोग होने की या रहने की दवा है फिर तो कोई किसी को भी बांध सकता था ? पर हिन्दुओं में बहन हि भाई को क्यों बांधती है ? भाई को अगर रक्षा बांधकर बहन रोगों से मुक्ति दिलाती है तो अविवाहिता के लिए तो मान भी लें, किन्तु अगर विवाहिता बहन भाई को रक्षा बांधकर रोग से मुक्ति दिलाये तो क्या पति के साथ अन्याय नही होगा ?
 
जबकि विवाहिता महिलाओं को अपने पति देव को निरोग रखने का प्रयास करना चाहिए, यह धर्म है या अधर्म ? अगर यह धर्म है फिर अधर्म क्या है ? जब रक्षाबन्धन वालों को ही पता नही कि किसी बहन का रक्षक भाई नही, विवाह से पूर्व पिता और विवाह के बाद पति ही रक्षक होते है | भाई की कोई भूमिका नही, अगर है तो मात्र विवाह संस्कार में | जो लाज आहुति लाई से दी जाती है यह भाई के हाथ से दिलवाई जाती है, और भाई के हाथ एक लाठी दिया जाता है विवाह एंस्कर की रक्षा के लिए,भाई का रोल बहन के साथ इतना ही है | माननीय पांडा जी ने लेखनी के अंत में बड़ी बुद्धिमानी के साथ अपनी पौराणिक गाथा को भी सिद्ध किया है |
भविष्य पुराण में इंद्र तथा इंद्र पत्नी शचि के रक्षा सूत्र बांधने का उल्लेख किया है, जबकि वैदिक सिद्धांत में पुराणों को महागप्प माना गया है | पुराणों को धर्म ग्रंथ नहीं माना आर्य विचारधारा में, आज पुराणों की गाथा का सार्वदेशिक पत्रिका में प्रमाण दिया जा रहा है | यहां पाठकगण एक बात को अवश्य ध्यान में रखें, मैं ऊपर लिख चुका हूं, कि शादी शुदा महिला पति को ही रक्षक मानती है | शचिके पति इंद्र को रक्षा सूत्र हाथ में बांधने की बात पुराण का प्रमाण माननीय प्रो. उपाध्याय जी ने दिया है और लिखा है हिंदू जाति लाखों वर्षों से इस पर्व को मनाती आ रही है | तो फिर बहन भाई के हाथ में रक्षा सूत्र क्यों बांधती ?
 
आर्यजनों को चाहिए कि प्रो. साहब से यह पूछे कि आप हिंदू जाति को लाखों वर्षों से कैसे मानते हैं ? हिंदू नाम कबसे और किसने दिया ? हिंदू की परिभाषा क्या है ? मेरे विचार से इसका उत्तर सार्वदेशिक सभा के अधिकारियों के पास भी नहीं है और ना ही यह लोग वैदिक सिद्धांत को जानते हैं | क्योंकि इससे पहले भी कई बार सार्वदेशिक पत्रिका में वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध लेख निकलते रहे हैं | यहां तक कि ईश्वर अंश जीव है को भी सार्वदेशिक पत्रिका ने छापा, |
जवाब स्वामी वेदमुनी परिव्राजक ने तथा डॉ. श्री भवानी लाल भारतीय जी ने भी दिया, मैंने भी लिखा था ‘घर को आग लगी घर के ही चिराग से’ | शीर्षक पर और व्यक्तिगत पत्र भी | श्री सभा प्रधान कैप्टन साहब तथा उपप्रधान श्री वधावन जी को भी लिखा था, उत्तर प्रधान जी का मिला था कि आगे से कोई वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध सार्वदेशिक पत्रिका में नहीं निकालेंगे, अवश्य ध्यान रखा जाएगा | ना मालूम श्री प्रधान जी इस लेख को वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध मानते हैं या नहीं ? श्री उपप्रधान जी का पत्र आया मेरे पत्र के जवाब में, आपकी बातों पर अवश्य ध्यान दिया जाएगा, आप समय निकालकर मेरे से मिले, कुछ समय दे तो संयुक्त रूप से कार्य करें, यद्यपि मेरे कई बार फोन से संपर्क करने पर भी समय नहीं मिला मिलने का |
आर्य संदेश में भी इसी प्रकार वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध लेख छापा जाता रहा है, मैंने लेखक व संपादक दोनों को ही लिखा | लेखक ने साफ कहा,‘यह लेख मेरा नहीं है, मुझे पता भी नहीं यह लेख मेरे नाम से कैसे छपा, मुझे पत्रिका भी नहीं मिली’| संपादक मौन हो गए वह लेख मनुदेव अभय जी का था |
जहां तक सार्वदेशिक पत्रिका की बात है तो 10 अगस्त 2003 के प्रकाशित पत्रिका में कई लेखकों के सिद्धांत विरुद्ध लेख है, लेखकों ने रक्षाबंधन के रक्षा सूत्र को भी सभी प्रकार से रक्षा कवच माना है | सार्वदेशिक 10 अगस्त 2003 के पृष्ठ 6 पर लेखक आकाश शुक्ल ने तो यहां तक लिखा कि आज रक्षाबंधन पर्व व्यापक रूप से मनाने की आवश्यकता है और आगे लिखा है पाकिस्तानी हमलावर निर्दोष जनता की हत्या कर रहे हैं | कहीं कट्टरपंथी ईसाई, मुसलमान, हिंदुओं का धर्मांतरण व दंगा लूट-लपाट हो रहा है, इस हेतु रक्षाबंधन का व्यापक प्रचार होना चाहिए | लेखक व संपादक सार्वदेशिक साप्ताहिक से प्रश्न है कि इस रक्षाबंधन का पाकिस्तानी आतंकवादी तथा ईसाई व मुसलमानों के धर्मांतरण से क्या संपर्क है ?
क्या रक्षा सूत्र आतंकवाद रोकने की औषधि है या फिर धर्मांतरण को भगाने का उपाय ? कोई भी स्वस्थ दिमाग वाला इसे गले के नीचे उतार सकता है ? अगर हां तो क्यों और कैसे ?
रक्षा सूत्र रक्षा कवच था, फिर भारत का आधा पाकिस्तान क्यों और कैसे बना ? सोमनाथ मंदिर, राम मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, कृष्ण जन्मस्थान को रक्षा सूत्र के द्वारा क्यों नहीं बचा पाये ? पुरानी बातों को अगर छोड़ भी दें शायद रक्षाबंधन का प्रचार उस समय इतना न रहा हो परंतु आज आए दिन कांड पर कांड होता जा रहा है, फिर रक्षा सूत्र उन कांडों को क्यों नहीं रोक पाया ?
दिल्ली के लाल किले में आतंकवादी प्रवेश कर गये, भारत का प्लेन हाईजैक कर लिया और उसमें बैठे यात्रियों के हाथ में भी रक्षा सूत्र बंधे हुए थे | यहां तक कि उस प्लेन को हाईजैक करवाने के अधिनायक मौलाना मसूद अजहर को उसके घर तक छोड़ते समय, यशवंत सिंह का रक्षा सूत्र काम क्यों नहीं आया ?
रघुनाथ मंदिर में रक्षा सूत्र वालों का छक्का छुड़ा दिया,अमरनाथ यात्री भी रक्षा सूत्र बांधकर ही गए उन यात्रियों की संतानों को अनाथ होने से रक्षा सूत्र नहीं बचा सका ?
जिस अंधविश्वास और रूढ़िवाद से बचाने के लिए ऋषि दयानंद ने आर्य समाज बनाया था आज उसी रूढ़िवाद का आर्यजनों की मुख्य पत्रिका सार्वदेशिक साप्ताहिक द्वारा ही प्रचार किया जा रहा है | जिस वैदिक सिद्धांत का प्रतिपादन ही आर्यों का एकमात्र लक्ष्य था, आज आर्यों के शिरोमणि सभाधिकारी द्वारा ही सिद्धांतों का गला घोटा जा रहा है | अब आर्य समाज व वैदिक सिद्धांत की मान्यता और पौराणिक मान्यता में या ईसाई और मुसलमानों की मान्यता में क्या अंतर रह गया है ? जिस मान्यता के बल पर आर्य जगत के विद्वान शास्त्रार्थ किया करते थे, आज उसी अंधविश्वास में आर्य समाज को आर्य समाज के कार्यकर्ता छोटे से लेकर सर्वोच्च अधिकारी तक गर्त में ले जाने के प्रयास में लगे हैं|
दयानंद ने सत्य के सामने राजा महाराजा की संपत्ति को ठोकर मारी थी और आज लोभ-लालच के वशीभूत होकर विभिन्न प्रांतों में दो-तीन सभा बनवाने में जुटे हैं | समाज में पनपे वैमनष्यता को समाप्त करने के बजाए मोटी रकम ले लेकर -आर्यों को विभाजित करने में लगे हैं | मात्र स्वार्थ के आधार पर, जो थैली दे सकते हैं प्रांतीय सभा उसी की है, कि नीति का उजागर हो रहा है |
हम जैसे वैदिक सिद्धांत से प्रभावित होकर परिवार को दांव पर लगाते हुए, आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में परिवार सहित जुटने वालों के लिए तो मात्र यही है,‘ना खुदा ही मिला, न विसाले सनम’, ना इधर के रहे हैं और ना उधर के |
नोट:- पाठकगण इलाहाबाद के उपाध्याय स्व. गंगाप्रसाद जी व सुल्तानपुरी उपाध्याय वाचस्पति जी के विचारों में क्या अंतर है, अवश्य देख लिया होगा क्योंकि यह महोदय महेश योगी संस्था के साथ भी जुड़े हैं । महेश योगी संस्था में वाचस्पति उपाध्याय बड़े पद्पे एक अधिकारी रहे | यह लेख ऋषि सिद्धान्त रक्षक पार्टीका में सम्पादकीय लेख था मेरे द्वारा |
महेंद्र पाल आर्य 24/9 /22

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